ज्योतिष में रोग विचार

Author
प्रो.हंसधर झा
आचार्य, ज्‍योतिष विभाग, के.सं.वि.वि. भोपाल परिसर, भोपाल

यह तिरोहित नहीं है कि ज्योतिष एक खगोल विज्ञान पर आधारित शास्त्र है। खगालीय ग्रहों एवं नक्षत्रों से सम्बन्धित प्रायः समस्त विचार इस ज्योतिष शास्त्र में विद्यमान हैं। यहाँ खगोलीय ग्रहों एवं नक्षत्रों से तात्पर्य है हमारे ब्रह्माण्ड से, हमारे सौरपरिवार से। सारे ग्रह-नक्षत्र हमारे सौरमण्डल की महत्त्वपूर्ण इकाइयाँ हैं जिसके अन्तर्गत हमारा भूमण्डल भी शामिल है। जिस तरह एक परिवार में स्थित समस्त सदस्यों के बीच  आपसी सम्बन्ध होता है, एक दूसरे की अच्छाई एवं बुराइयों से परस्पर प्रभावित होते रहते हैं, उसी तरह ब्रह्माण्डान्तर्गत समस्त पिण्ड एक दूसरे से सम्बन्धित है यानी प्रभावित हैं। इस तरह स्वाभाविक है कि हमारा भूमण्डल भी ग्रह-नक्षत्रों के प्रभाव से अछूता कैसे रह सकता ? यानी हम भूमण्डल वासी इन समस्त ग्रहों एवं नक्षत्रों से प्रतिक्षण प्रभावित होते रहते हैं।

 

हमारे भारतीय ऋषियों नें अपनी दिव्यदृष्टि से इन ग्रहों एवं नक्षत्रों के बारे में, भूमण्डल पर पडने बाले इनके प्रभावों के बारे में गहन अन्वेषण किया जिसका मूर्तरूप हमारे सम्मुख ज्योतिषशास्त्र विद्यमान है। इसी प्रभाव के अन्तर्गत मनीषियों नें मानवजीवन में होनें बाले समस्त पहलुओं के विषय में लिखा है जो मानवमात्र केलिये उपयोगी हैं।

            इस तरह विभिन्न पहलुओं के अन्तर्गत एक महत्त्वपूर्ण पहलू रोग भी है जिससे प्रत्येक मानव सतर्क रहना चाहता है। ‘‘रीरं व्याधिमन्दिरम्’’ इस उक्ति से स्पष्ट है कि यह शरीर व्याधि का घर है। विविध आन्तरिक एवं बाह्य कारणों से मानव रोगपीडित हो जाता है, जो उसके जीवन को अस्तव्यस्त कर देता है। चिकित्सा शास्त्र की दृष्टि में मानव शरीर में होने बाले रोग-दोषों का मुख्य कारण मिथ्या आहार-विहार है। किन्तु ऐसा भी प्रत्यक्ष देखने में आता है कि मिथ्या आहार-विहार के बावजूद, कभी-कभी व्यक्ति स्वस्थ, प्रन्न तथा नीरोग दीखता हैं तथा संयमपूर्ण जीवन व्यतीत करने बाला व्यक्ति भी कभी-कभी रोग से संत्रस्त हो जाता है।

ज्योतिषशास्त्र का मानना है कि मनुष्य को होनें बाले रोग-दोष उनके किये हुये अशुभ कर्मों के फलस्वरूप ही प्रगट होते हैं। कर्मफल के अनुसार वे अपने निर्धारित समय पर प्रकट होते हैं और अपनें समय से ही नष्ट भी होते हैं। उस निर्धारित अन्तः योजना के अनुसार ही मनुष्य के जीवन में उसी तरह की परिस्थितियाँ बनती हैं और बिगडती भी हैं। अर्थात् आयुर्वेद नें जिस मिथ्या आहार-विहार को रोग का कारण माना है वे सभी कारण प्राणी के पूर्वार्जित कर्मफल के अनुसार अपने आप सृजित होते रहते हैं। यही कारण है कि मनुष्य के जीवन में होने बाले रोगों से सम्बन्धित जानकारी इस ज्योतिषशास्त्र से मिल जाती है। अर्थात् यह ज्योतिष शास्त्र मात्र रोग-दोष से सम्बन्धित ही नहीं अपितु मानव जीवन में होने बाली समस्त घटनाओं से सम्बन्धित जानकारी देता है। जैसे लघुजातक का यह पद्य देखा जा सकता है -

                        यदुपचितमन्यजन्मनि शुभाशुभं तस्य कर्मणः पंक्तिम्।

                   व्यञ्जयति शास्त्रमेतत्तमसि द्रव्याणि दीप इव।। इति।।

इस पद्य में आचार्य वराहमिहिर कहते हैं कि पूर्व जन्म में अर्जित शुभाशुभ के फल को यह शास्त्र उसी प्रकार प्रकट करता है, जैसे अन्धकार में रखे हुए पदार्थों को दीप प्रकट (प्रत्यक्ष) कर देता है।

            जिस तरह मिथ्या आहार-विहार जनित रोगों का शमन औषध एवं योग के द्वारा हो जाता है, उसी तरह ग्रह जनित रोग-दोषों का शमन ग्रहोपचार के द्वारा होता है। क्यों कि पूर्वजन्मार्जित कर्मफल का नियन्त्रक ज्योतिष शास्त्र में ग्रहरूपी जनार्दन को माना गया है। यथा महर्षि पारार कहते हैं -

                        अवताराण्यनेकानि ह्यजस्य परमात्मनः।

                   जीवानां कर्मफलदो ग्रहरूपी जनार्दनः।। इति।।

            जिस तरह वैद्य रोग के सही कारणों को जानकर उसका शमन करनें में समर्थ होता है, उसी तरह एक अच्छा ज्योतिषी रोगमूलक ग्रहदोष को जानकर उसको शमन (अनुकूल) करनें में समर्थ होता है। इसलिये सदाचारी दैवज्ञ  से समय समय पर अपनी जन्मकुण्डली के सम्बन्ध में मार्गदर्शन लेते रहनें से व्यक्ति भरसक रोग के सम्बन्ध में सतर्कता बरत सकता है, अथवा रोगशमन केलिये उचित मार्गदर्शन पा सकता है। यही कारण है कि अचार्य वराहमिहिर नें महर्षि गर्ग के मत को समुपस्थापित करते हुये कहते हैं कि अपना कल्याण चाहने बाले राजा को सच्चे ज्योतिषी का सान्निध्य अनिवार्य है। यथा -

                        कृत्स्नाङ्गोपाङ्गकुलं होरागणितनैष्ठिकम्।

                   यो न पूजयते राजा स नामुपगच्छति।। इति।।

पुनः मानव जीवन में ज्योतिषी की आवश्यकता को पुष्टि करते हुए आचार्य वराहमिहिर कहते हैं -

                        नासाम्बत्सरिके देशे वस्तव्यं भूतिमिच्छता।

                   चक्षुर्भुतो हि यत्रैष पापं तत्र न विद्यते।। इति।।

इसका आशय है कि अपना कल्याण चाहने बाला ऐसे स्थान में नहीं वास करे जहाँ जीवन मार्ग को प्रकाशित करने बाला ज्योतिषी न हो। इस तरह स्पष्ट है कि ज्योतिषशास्त्र मानवमात्र केलिये कल्याणकारी शास्त्र है, जिसके माध्यम से भविष्य में होने बाले रोग के विषय में पूर्व जानकरी प्राप्त कर उससे सम्बन्धित सावधानियाँ बरती जा सकती हैं।

आपको पता है कि इस त्रिस्कन्धात्मक ज्योतिष में होरा स्कन्ध प्राणी के जन्मकालिक द्वादश भाव एवं ग्रहस्थिति के आधार पर उसके जीवन में होनें बाली समस्त घटनाओं के विषय में जानकारी देता है। यहाँ तनु, धन, सहज, सुहृत, सुत, रिपु, जाया, मृत्यु, धर्म, कर्म, आय एवं व्यय इन में बारह भावों में षष्ठ भाव मुख्यरूप से रोग एवं शत्रु से सीधा सम्बन्ध रखता है। यही कारण है कि इसे रोग भाव भी कहा जाता है। अर्थात् छठे भाव से रोग एवं शत्रु दोनों का विचार किया जाता है। इस तरह कुण्डली में छठे भाव का रोग से सीधा सम्बन्ध है ही, आठवें भाव एवं बारहवें भाव से भी ऋषियों नें रोग का सम्बन्ध बतलाया है। जैसे फलदीपिकाकार लिखते हैं -

                        रोगस्य चिन्तामपि रोगभाव-

                   स्थितैर्गहैर्वा व्ययमृत्युसंस्थैः।

                   रोगेश्वरेणापि तदन्वितैर्वा

                   द्वित्र्यादिसंवादवशाद् वदन्तु।। इति।।

इसका आशय है कि निम्नलिखित ग्रह रोग के कारक होते हैं। 1. जो ग्रह छठे भाव में हो, 2. जो ग्रह अष्टम में हो, 3. जो ग्रह बारहवें में हो, 4. जो ग्रह षष्ठे हो, तथा 5. जो ग्रह षष्ठेश के साथ हो। उपर्युक्त दो तीन ग्रहों के अनुसार जब एक ही रोग का संकेत मिले तब उस रोग की पूरी सम्भावना कहनी चाहिये। इसके अलाबा भी ज्योतिषशास्त्र में अनेकानेक ग्रहस्थितियाँ बतलाई गई हैं जो रोग के सम्बन्ध में ध्यातव्य होती हैं।

            ज्योतिषशास्त्र में सभी ग्रहों को किसी न किसी धातु का कारक कहा गया है, तथा जो ग्रह जिस धातु का कारक होता है वह ग्रह रोगकारक होने पर अपने धातु से सम्बन्धित रोग को उत्पन्न करता है। अतः ग्रहों के धातु आदि को जानकर रोग का संकेत करना चाहिये।

            इस तरह आचार्य मन्त्रेश्वर  नें रोगविचार के क्रम में सूर्यादिग्रहों से रोगों के सम्बन्धों को आठ श्लोकों में स्पष्ट किया है, जो निम्नलिखित  प्रकार से है।

(क) विभिन्न ग्रहों के रोगकारक होने पर विभिन्न रोगों का अनुमान

 1. सूर्य- सूर्यके प्रतिकूलहोनेपर निम्नलिखित रोग एवं कष्टकी सम्भावना होती है। यथा, (1) पित्त (2) उष्णज्वर/बुखार (3) शरीरमें जलन (4) अपस्मार/मिर्गी (5) हृदयरोग (6) नेत्ररोग (7) नाभिसे नीचे प्रदेमें/कोखमें बीमारी (8) चर्मरोग (9) अथिस्रुति (10) शत्रुओंसे भय (11) काष्ठ, अग्नि, अस्त्र या विषसे पीडा (12) स्त्री या पुत्रसे पीडा (13) चोर, चौपाया या सर्पसे भय (14) राजा, धर्मराज एवं रुद्र/शिवसे भय, ये सब सूर्य की प्रतिकूलता में सम्भावित होते हैं।

2. चन्द्र- चन्द्रके प्रतिकूलहोनेपर निम्नलिखित रोग एवं कष्टकी सम्भावना होती है। यथा (1) निद्रारोग (2) आलस्य (3) कफ (4) अतिसार/संग्रहणी (5) पिटक,कारबंकिल (6) षीतज्वर (7) सींग वाले जानवर या जलीय जन्तुसे भय (8) मन्दाग्नि (9) अरुचि (10) स्त्रियोंसे व्यथा (11) पीलिया (12) रक्तदोष (13) जलसे भय (14) मनमें थकान (15) बालग्रह, दुर्गा, किन्नर, धर्मराज, सर्पएवं यक्षिणीसे भय, ये सब चन्द्र की प्रतिकूलता में सम्भावित होते हैं।

3. मंगल- मंगलके प्रतिकूलहोनेपर निम्नलिखित रोग एवं कष्टकी सम्भावना होती है। यथा, (1) अधिक प्यासलगना (2) वायु एवं पित्तप्रकोप (3) अग्नि, विष या स्त्रसे भय (4) कुष्ठरोग (5) नेत्ररग (6) पेटमें फोडा या एपिडिसाइटीज (7) मृगी (8) हड्डीके अन्दर का रोग (9) खुजली (10) चमडेमें खुर्दुरापन (11) अङ्गभङ् योग (12) राजा, अग्नि या चोरों से भय (13) भाई, मित्र एवं पुत्र से कलह (14) शत्रुओं से लडाई (15) शरीर के ऊपरी भाग में रोग तथा (16) राक्षस,गन्धर्व तथा घोर ग्रह से भय, ये सब मंगल की प्रतिकूलता में सम्भावित होते हैं।

4. बुध-बुध के प्रतिकूलहोनेपर निम्नलिखित रोग एवं कष्टकी सम्भावना होती है। जैसे, (1) सन्देह (2) दुर्वचन (3) नेत्ररोग (4) गले की बीमारी (5) नासिकारोग (6) त्रिदोषज्वर (7) विषजन्यरोग (8) चर्मरोग (9) पीलिया (10) खुजली (11) दुःस्वप्न (12) अग्निभय (13) श्रमाधिक्य (14) गन्धर्व से भय, ये सब बुध की प्रतिकूलता में सम्भावित होते हैं।

5. बृहस्पति- गुरुके प्रतिकूलहोनेपर निम्नलिखित रोग एवं कष्टकी सम्भावना होती है। यथा, (1) गुल्मरोग (2) पेटका फोडा/एपिन्डिसाइटीज आदि (3) आँतका ज्वर (4) मूर्छारोग, ये सभी रोग कफसे होते हैं, क्यों कि कफके अधिष्ठाता गुरु हैं। (5) कर्णरोग (6) देवस्थान के कारण परेशानी (7) ब्राह्यणके शाप से कष्ट (8) किसी खजानेके कारण परेशानी का योग (9) विद्याधर, यक्ष, किन्नर, देवता, सर्प आदि का उपद्रव (10) गुरुके साथ अभद्र व्यवहार से परेशानी, ये सब गुरु की प्रतिकूलता में सम्भावित होते हैं।

6. शुक्र-शुक्रके प्रतिकूलहोनेपर निम्नलिखित रोग एवं कष्टकी सम्भावना होती है। यथा, (1) रक्ताल्पता (2) पीलिया (3) कफ एवं वायु के दोष से नेत्ररोग, मूत्ररोग, प्रमेह या पेशाबजन्य कष्ट/बीमारी (4) वार्याल्पता (5) नपुंसकता (6) कान्तिहीनता (7) योगिनी, यक्षिणी एवं मातृगण से भय (8) मैत्रीभंग, ये सब शुक्र की प्रतिकूलता में सम्भावित होते हैं।

7. शनि-शनि के प्रतिकूलहोनेपर निम्नलिखित रोग एवं कष्टकी सम्भावना होती है। यथा, (1) वात एवं कफके द्वारा उत्पन्न रोग (2) टांग में कष्ट (3) अतिश्रम से थकान (4) भ्रम/सन्देहाधिक्य (5) कुक्षिरोग (6) उष्णता (7) नौकरों से कष्ट (8) पुत्र एवं पत्नीजन्य कष्ट (9) चोट (10) हृदय ताप (11) पिशाच आदि की पीडा (12) आपत्ति, ये सब शनि की प्रतिकूलता में सम्भावित होते हैं।

8. राहु-राहुके प्रतिकूल होनेपर निम्नलिखित रोग एवं कष्टकी सम्भावना होती है। यथा, (1) हृदयरोग (2) कोढ (3) दुर्मति (4) भ्रान्ति (5) विषके कारण रोगोपद्रव (6) पैरमें पीडा (7) स्त्री,पुत्रजन्य कष्ट (8) सर्प एवं पिशाचभय, ये सब राहु की प्रतिकूलता में सम्भावित होते हैं।

9. केतु-  केतुके प्रतिकूल होनेपर ब्राह्यणों एवं क्षत्रियोंसे कलहके कारण कष्ट तथा त्रूपद्रवकी सम्भावना होती है। साथ ही  केतुके कुपित होनेसे खाज-खुजली एवं चेचक आदि रोगोंकी भी सम्भावना होती है।

            इस तरह रोगपरिज्ञानके क्रममें यह जानना चाहिये कि सूर्यादि ग्रहोंका किन-किन अंगोंपर विशेष अधिकार है। किस ग्रहमें किस धातुकी प्रधानता है। तथा अस्थि, रुधिर, मांस, मज्जा इत्यादि शारीरिक पदार्थोंपर किस ग्रहका आधिपत्य है। साथ ही यह भी जानना आवश्यक है कि इन ग्रहोंका क्तिप्राधान्य मनुष्यके शरीरमें किस प्रकार का है। इन सारी बातोंको संक्षिप्त में नीचे चक्रके माध्यमसे दर्शाया जा रहा है, जो आपके लिये रोग परिज्ञान में सुविधाजनक होगा।

ग्रहाणां तत्त्वादिबोधक सारिणी

 

ग्रह

शारीरिक शक्ति

आधिपत्य रीरावयव)

सूर्य

प्राणाधार एवं मर्मस्थानीय शक्ति

शि

चन्द्र

पालन शक्ति, पौष्टिकता

मुख

मंगल

सोथ एवं जलन

कान

बुध

शारीरिक नसों की शक्ति

पेट

गुरु

रक्ताधिक्य एवं स्थूलता

गुर्दा

शुक्र

नसों के अन्तर्गत रस

आँख

शनि

प्रगाढता

पैर

 

द्वि‍तीय सारिणी

ग्रह

तत्त्व

धातु

शारीरिक सप्तधातु

सूर्य

अग्नि

पित्त

अस्थि(हड्डी)

चन्द्र

जल

वातष्लेष्मा

रुधिर(खून)

मंगल

अग्नि

पित्त

नस आदि

बुध

पृथ्वी

कफ,पित्त, वायु

चर्म

गुरु

आकाश, शब्द

कफ

मांस एवं चर्वी

शुक्र

जल

कफ,वायु

वीर्य

शनि

वायु

वात

मज्जा

 

 

 

(ख) विभिन्न ग्रहयोगोंके आधारपर रोगों का अनुमान

            ज्योतिषशास्त्रमें बहुत सारे ऐसे रोग बतलाये गये हैं जो ग्रहों एवं भावों की पारस्परिक स्थिति पर भी निर्भर करते हैं। अतः उपर्युक्त ग्रहों के कारकत्व को तो ध्यान में रखना ही चाहिये, साथ साथ उनके योगायोग एवं भाव-भावेशों के साथ सम्बन्ध पर भी ध्यान रखने की आवश्यकता होती है। उनमें से कतिपय रोगयोग इस प्रकार हैं।

  • रोगयोग-
    • चन्द्रमा पापग्रह से युक्त होकर षष्ठभाव में रहे तो जातक रोगयुक्त होता है।
    • चन्द्रमा पापग्रह से पीडित (क्रूरग्रह से युक्त या दुष्ट) होकर षष्ठभाव में रहे तो जातक रोगयुक्त होता है।
    • केन्द्रगत पापग्रह यदि शुभग्रह की दृष्टि से रहित हो तो जातक रोगयुक्त होता है।
    • क्रूरग्रह शुक्र की राशि में स्थित हो तथा भौम, गुरु, शुक्र की दृष्टि से वर्जित हो तो जातक रोगयुक्त होता है।
  • व्रणयोग-
    • छठे या आठवें में मंगल,राहु हों या उस पर मंगल की दृष्टि हो तो पिटक आदि रोग (सामान्य फोडा, फुंसी आदि) की सम्भावना रहती है।
    • यदि षष्ठेश पापग्रह से युक्त होकर लग्न या अष्टम में हो तो स्वयं को व्रण (घाव, फोडा, फुन्सी) होता है।
    • यदि मातृ, पितृ, सुत, बन्धु, स्त्री और मित्र भाव के स्वामी ग्रह यदि पापग्रह से युक्त होकर लग्न या अष्टम भाव में रहे तो मातृ, पितृ, सुत, बन्धु, स्त्री और मित्र के शरीर में व्रण होता है।
    • यदि लग्न या अष्टम भाव में उपर्युक्त पापयुक्त षष्ठेश सूर्य हो तो शिर में, यदि चन्द्र रहे तो मुख में, यदि भौम रहे तो कण्ठ में, बुध रहे तो हृदय में, गुरु हो तो नाभिमूल में, शुक्र हो तो आँख और पीठ में, शनि रहे तो पाँव में, केतु या राहु रहे तो अधरोष्ठ में व्रण होता है।।
    • षष्ठेश यदि पुरुष(1,3,5,7,9,11,) राशि में या स्वोच्च राशि में हो और पापग्रह की दृष्टि से युक्त हो तो जातक के शरीर में शत्रुओं के द्वारा किया गया घाव का योग होता है।
    • मंगल एवं शनिद्वादश या षष्ठ भाव में रहे तो व्रण होता है।
    • मंगल, शनि तथा गुरु चतुर्थ भाव में हो तो हृदयरोग और अतिदारुण व्रण होता है।
    • षष्ठस्थ या अष्टमस्थ मंगल अथवा केतु व्रण (घाव, चोट) कारक होता है।
    • लग्नेश यदि मंगल से युक्त होकर त्रिक (6,8,12) में हो तो ग्रन्थि (गँठिया-वातव्याधि) रोग होता है तथा स्त्र से घाव होता है।
    • छठे या आठवें में शनि हो तो वातरोग की सम्भावना रहती है।
  • नेत्ररोग-
    • यदि लग्नेश भौम या बुध की राशि (मेष, वृश्चि, मिथुन, कन्या) में हो तो और भौम या बुध से दृष्ट हो अथवा लग्नेश किसी भी राशि में स्थित होकर बुध से दृष्ट हो तो जातक नेत्ररोगी होता है।।
    • षष्ठ भाव में लग्नेश या अष्टमे हो तो वामनेत्र में, किन्तु षष्ठभाव में शुक्र रहे तो दक्षिणनेत्र में रोग होता है।
    • षष्ठेश या चन्द्रमा पापग्रह से युक्त होकर अदृश्य चक्रार्ध (सप्तमभाव के भोग्यांष से लग्न के भुक्तां तक) में हो तो जातक के आँखों में कोई चिह्न होता है।
    • क्षीण चन्द्रमा शुक्र की दृष्टि से हीन हो तो और शनि से देखा जाता हो तो जातक की आँखे छोटी होती हैं तथा अल्पदृष्टि होती है।
    • कर्क राशि का चन्द्रमा सप्तमस्थ तथा दशमस्थ ग्रह से देखा जाता हो तो भी जातक की आँखे छोटी तथा अल्पदृष्टि होती हैं।
    • चन्द्र या मंगल से युक्त लग्न को गुरु या शुक्र से दृष्ट हो तो जातक काण (एकाक्ष) होता है।
    • सिंहस्थ चन्द्रमा यदि सप्तमस्थ मंगल को देखे तथा नवमे मेष, सिंह, वृश्चिक या मकर राशि में रहे तो जातक काण (काना) होता है।
    • कर्कराशिगत सूर्य यदि सप्तमस्थ मंगल को देखे तथा नवमेष मेष, सिंह, वृश्चिक या मकर राशि में रहे तो जातक काण (काना) होता है।
    • सूर्य से आगे 18 अं के अन्तर्गत बुध हो तो आँखों में चिह्न होता है।
    • लग्न में पापग्रह से पीडित शुक्र के होने से आँखों से पानी गिरने के कारण कष्ट होता है।
    • चन्द्र और मंगल एक ही राशि मे रहे तो नेत्र में चिह्न होता है।
    • पापग्रह से युक्त या दृष्ट सूर्य यदि पंचम, नवम अथवा द्वादश भाव में हो तो जातक मनस्वी और नेत्ररोगी होता है।
    • चतुर्थभावस्थ शनि यदि पापग्रह से दृष्ट हो तो जातक अन्धा तथा प्लीहा रोग से युक्त होता है।
    • यदि चन्द्रमा और सूर्य बारहबें या दूसरे स्थान में हों और उनको मंगल एवं शनि देखते हों तो नेत्ररोग होता है।

            यहाँ आचार्य गोपेकुमार ओझा जी लिखते है कि सूर्य, चन्द्रमा दोनों साथ या एक दूसरे के घर में रहे और उनको मंगल एवं शनि पूर्ण दृष्टि से देख रहे हों तो आँख से दिखाई देना बिल्कुल बन्द हो सकता है। चुँकि द्वितीय एवं द्वादश भाव को नेत्रस्थान कहते हैं। दूसरा स्थान दाहिने नेत्र का है और द्वादश स्थान वाएँ नेत्र का है। अतः जिस स्थान में उपर्युक्त योग हो उससे सम्बन्धित आँख में दृष्टिबाधा कहनी चाहिये।

            यदि सूर्य एवं चन्द्रमा इन दानों में से कोई एक द्वितीय या द्वादश भाव में स्थित हो और उसे शनि या मंगल देखता हो तो भाव सम्बन्धित नेत्र में (दूसरे भाव में रवि. चन्द्र के होने पर दाईं दाँख में तथा द्वादश भाव में रवि, चन्द्र के होने पर बाईं आँख में) रोग होता है। नेत्रस्थान में बैठे हुए सूर्य या न्द्रमा को केवल मंगल या केवल शनि देखे तो थोडा कष्ट, किन्तु दोनों देखे तो भरपूर कष्ट होता है। श्री ओझा जी का मानना है कि नेत्रस्थान में सूर्य, चन्द्र के अतिरिक्त कोई दूसरा पापग्रह भी स्थित हो या पापग्रह का योग हो तो भी नेत्र बाधा हो सकती है।

  • विविध रोग-
    • षष्ठेश तृतीय भाव में हो तो नाभिरोग होता है।
    • लग्नेश भोम या बुध की राशि में होकर कहीं भी स्थित हो तो शत्रु से पीडा एवं गुदारोग होता है।
    • षष्ठेश या अष्टमें सप्तम में हो, षष्ठेश अष्टम में हो तो गुदारोग होता है।

            यहाँ ध्यातव्य है कि सप्तम स्थान गुह्यप्रदे (जननेन्द्रिय प्रदेश) का तथा अष्टमस्थान गुदाप्रदेश का प्रतिनिधित्व करता है। अतः स्पष्ट है कि गुह्यस्थान में अथवा गुदास्थान में षष्ठेश के या अष्टमेष के होने से तत्तत्स्थानीय रोग का संकेत आचार्य मन्त्रेश्वर ने जो दिया है वह युक्तिसंगत ही है।

    • शुक्र यदि सप्तम या अष्टम स्थान में हो तो वीर्य सम्बन्धी रोग होता है। यथा मूत्र रोग या प्रमेह आदि रोग।
    • षष्ठस्थ शुक्र भी जननेन्द्रिय प्रदेश में रोग को उत्पन्न करने बाला होता है।
    • बृहस्पति यदि द्वादशभाव में रहे तो असाध्य गुप्तरोग होता है।
    • षष्ठभाव में शनि रहे तो वायुविकार एवं भौम रहे तो रक्तविकार होता है।
    • षष्ठ या अष्टमस्थ सूर्य ज्वर का कारण होता है।
    • यदि लग्नेश सूर्य से युक्त होकर त्रिक (षष्ठ, अष्टम या द्वादश) में रहे तो तापगण्ड रोग होता है।
    • लग्नेश यदि चन्द्रमा से युक्त होकर त्रिक(6,8,12)स्थान में हो तो गलगण्ड रोग होता है।
    • चन्द्रमा शनिदृष्ट होकर अथवा द्वितीयभावस्थ होकर जलचर (कर्क, मकर, कुम्भ, मीन) राशि में हो तो दाद-खाज की बीमारी होती है।
    • सूर्य के लग्न में रहने पर भी दाद-खाज की बीमारी होती है।
    • छठे या आठवें में बृहस्पति हो तो क्षय रोग (टी.बी.आदि) की सम्भावना रहती है। यथा ‘‘क्षयं सुरगुरौ’’ इति।।।।
    • छठे या आठवें में पापयुक्त क्षीणचन्द्र जलराशि (कर्क, वृश्चि, मकर या मीन राशि) में हो तो जल से सम्बन्धित रोग (जलोदर, या शरीर के अन्य भाग में पानी होना) अथवा यक्ष्मा (टी.बी.) रोग की सम्भावना रहती है। यथा ‘‘क्षीणेन्दौ जलभेषु पापसहिते तत्स्थेऽम्बुरोगं क्षयम्।। इति।।’’
    • छठे या आठवें में चन्द्रमा और शनि एक साथ हों तो गुल्मरोग होता है। यथा ‘‘सेन्दौ नौ गुल्मजम्’’।।
    • लग्नेशशनि पापग्रह से युक्त या दृष्ट हो तो जातक प्लीहा रोग से युक्त तथा हर्षहीन होता है।
    • षष्ठेश तथा चन्द्रमा केवल पापग्रह से देखे जाते हों तो प्लीहा रोग होता है।
    • लग्नेश तथा सप्तमेष केवल पापग्रह से देखे जाते हों तो भी प्लीहा रोग होता है।
    • षष्ठेश सूर्य पापग्रह के साथ चतुर्थ भाव में हो तो हृदयरोग होता है।
    • शनि या गुरु पापग्रह से युक्त या दृष्ट होकर चतुर्थ या षष्ठ भाव में हो तो हृदय में कृष्णपित्तरोग होता है या दुष्टों से पीडित होने के कारण कम्परोग होता है।
    • मंगल के पाँचवें भाव में होने से पेट का रोग होता है।
    • यहाँ ध्यातव्य है कि पंचम स्थान उदर का प्रतिनिधित्व करता है। अतः मंगल का पंचम में होना पेट केलिये हानिकारक बतलाया गया है। इसतरह उदररोग में पंचम में मंगल का होना संकेतित करता है कि पंचम में अन्य पापग्रह यथा सूर्य, शनि, राहु या केतु का होना भी उदररोग कारण हो सकता है।
  • षष्ठ भाव में राहु या केतु रहे तो दाँत या होठ में रोग होता है।
    • मेष, वृष या धनु लग्न हो तथा उस पर पापग्रह की दृष्टि हो हो तो दन्तरोग होता है।
    • बृहस्पति, शुक्र या षष्ठेश पापग्रह से दृष्ट होकर यदि लग्न में हो तो मुख में शोंफरोग (सूजन) होता है।
    • यदि मेंष लग्न में चन्द्रमा स्थित हो तो मुख में दुर्गन्ध होता है।
    • जन्मकुण्डली में तृतीयभाव, एकादभाव एवं बृहस्पति यदि मंगल तथा शनि से युक्त अथवा दृष्ट हो तो कर्णरोग होता है।

            चुँकि तृतीयभाव से दाहिने कान का तथा एकादशभाव से वाँये कान का विचार किया जाता है, अतः उपर्युक्त कर्णरोग सम्बन्धित भाव के अनुसार वाम अथवा दक्षिण कर्ण में ऊह करना चाहिये। आचार्य गोपेकुमार ओझाजी  का मानना है कि तृतीयभाव तथा एकादशभाव जितने निर्बल होंगे और जितनी अधिक पापदृष्टि इन दोनों पर पडेगी, अथवा जितने अधिक पापग्रहों के साथ ये दोनों तथा बृहस्पति होंगे उतना ही अधिक कष्टकारी कान का रोग होगा।

            यहाँ कर्णरोग में तृतीय एवं एकादश भाव के साथ साथ गुरु की भी भूमिका इसलिये महत्त्वपूर्ण मानी गई है कि बृहस्पति आकाशतत्त्व के अधिपति हैं तथा आकाशशब्द का अधिष्ठान है और शब्द कर्ण का विषय है। अतः स्पष्ट है कि गुरु का कान से सीधा सम्बन्ध बनता है। फलतः गुरु की सबलता या निर्बलता कान को विशेष रूप से प्रभावित करना स्वाभाविक ही है।

            इस तरह बृहस्पति को मंगल एवं शनि में से कोई एक पूर्ण दृष्टि से देखता हो, अथवा दोनों पूर्ण दृष्टि से देखते हों, अथवा उन दोनों में से किसी एक के साथ या दोनों के साथ युक्त ही हों तो जातक कानरोग से पीडित होता है अथवा बहरा होता है। चुँकि मंगल पित्तप्रधान है, अतः मंगल की युति या दृष्टि होने पर फड़ा फुंसी, रक्तस्राव आदि के कारण कान में कष्ट हो सकता है। शनि वायुप्रधान ग्रह है, अतः शनि के कुपित होने पर कान में वायुजन्य कष्टाधिक्य समझना चाहिये।

  • कमर एवं हाथ-पैर में कष्ट होता हैयदि-
    • गुरु युक्त शुक्र चतुर्थ भाव में हो।
    • अथवा गुरु से युक्त मंगल, बुध या शनि किसी भाव में हो।
    • लग्न में स्थित शुक्रशनि से दृष्ट हो तो केवल कमर में कष्ट होता है।
    • षष्ठ भाव में शनि रहे तो केवल पैर में कष्ट होता है।
    • सूर्य, चन्द्र एवं शनि षष्ठ या अष्टम भाव में हो तो हाथ में विशेष पीडा होती है।
  • जंघा प्रदेश में कष्ट होता है , यदि-
    • पापयुक्त अष्टमे एवं नवमे पापग्रह से चतुर्थ भाव में स्थित हो।
    • मंगल एवं शनि से युक्त राहु षष्ठ भाव में हो।
    • मंगल एवं शनि से युक्त सूर्य षष्ठ भाव में हो।
    • पापदृष्ट शनि तथा षष्ठेशद्वादश भाव में हों।
  • विकलांग योग-
    • लग्न में पापग्रहों के होने पर जातक विकलांग होता है।
    • सूर्य एवं चन्द्रमा केन्द्र में कहीं एक साथ हो तो जातक विकलांग होता है।
    • नवम भावस्थ शनि एवं चन्द्रमा पापग्रह से युक्त होकर यदि मेष, कर्क, वृश्चि, मकर या मीन राशि में स्थित हो तो जातक खंज (लँगडा) होता है।
  • सफेदकुष्ठ कुष्ठरोग होता है , यदि-
    • लग्नेश एवं बुध राहु या केतु से युक्त होकर किसी भी स्थान में हो।
    • मंगल एवं चन्द्रमा राहु या केतु से युक्त होकर कहीं पर स्थित हो ।
    • चन्द्रमा मंगल या शनि से युक्त होकर मेष या वृष राशि में रहे।
  • रक्तकुष्ठ होता है, यदि-
    • सूर्य यदि भौम अथवा शनि से युक्त हो ।
    • कर्क, वृश्चिक एवं मीन राशि पापग्रह से युक्त हो तो कुष्ठ रोग होता है।
    • चन्द्र, मंगल, शुक्र एवं शनि यदि मीन, कर्क या वृश्चिकराशि में रहे तो व्यक्ति शारीरिक सुख से वंचित, पापकर्मी एवं रक्तकुष्ठी होता है।

            इस तरह ज्योतिष शास्त्र का यह रोगविषयक परिज्ञान मानव मात्र के लिये अत्यन्त ही उपादेय है इसमें सन्देह नही। ऋषियों के दिव्य ज्ञान का प्रतीक यह ज्योतिषशास्त्रनिश्चय ही हम मानव केलिये प्रसादस्वरूप ही है। अर्थात् प्रसादस्वरूप इस ज्योतिषशास्त्र के माध्यम से मानव अपनें भावी रोगों का परिज्ञान करते हुए उस रोग से बचने का भरसक प्रयास कर सकता है।।

।। इति म्।

संदर्भ सूची / References

फलदीपिका

बृहज्‍जातकम्

बृहत्‍पाराशरहोराशास्‍त्रम्

होरारत्‍नम्

सारावली

गर्गजातकम्


3 Comments

Amanda Martines 5 days ago

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