जलविज्ञान के आदि पिता वराहमिहिर

Author
डॉ.गणेश मिश्र
आचार्य, केन्‍द्रीय संस्‍कृत विश्‍वविद्यद्यालय, सदाशिवपरिसर पुरी

भारतीय जलवैज्ञानिक वराहमिहिर जिसने सबसे पहले अन्तरिक्ष में मंगल ग्रह पर 1500 वर्ष पूर्व जल की खोज की और पृथिवी में भी भूमिगत जल की खोज करते हु्ए सर्वप्रथम इस भूवैज्ञानिक सिद्धान्त को स्थापित किया कि मनुष्यों के शरीर में जिस तरह नाड़ियां होती हैं उसी प्रकार भूमि के नीचे भी जलधारा को प्रवाहित करने वाली शिराएं होती हैं। वराहमिहिर का जलविज्ञान एकांगी रूप से केवल भूगर्भीय जल पर आधारित सैद्धान्तिक विज्ञान ही नहीं है बल्कि वर्षाकालीन अन्तरिक्षगत मेघों के पर्यवेक्षण, मौसमविज्ञान सम्बन्धी जलवायु परीक्षण तथा भूगर्भीय जल की खोज पर आधारित ‘औब्जर्वेटरी’ और प्रायोगिक विज्ञान भी है।

वराहमिहिर ने अपने युग में प्रचलित जलविज्ञान की मान्यताओं का संग्रहण करते हुए जलविज्ञान का विवेचन दो प्रकार से किया किया। इनमें से एक प्रकार का जल अन्तरिक्षगत जल है जो समुद्र आदि से वाष्पीभूत होकर आकाश में बादलों के रूप में संचयित होता है और दूसरे प्रकार का जल बादलों से बरस कर भूमिगत जल बन जाता है। आधुनिक विज्ञान की दृष्टि से अन्तरिक्षगत जल का विवेचन ‘मौसमविज्ञान’ के अन्तर्गत किया जाता है तो भूमिगत जल का विवेचन ‘जलविज्ञान’ के धरातल पर होता है। वराहमिहिर ने भी आधुनिक विज्ञान के समान जल प्राप्ति के इन  दो आयामों का विवेचन दो अलग अलग शाखाओं के अन्तर्गत किया है। ‘बृहत्संहिता’ के 21वें‚ 22वें और 23वें अध्यायों में वराहमिहिर ने मेघों से प्राप्त होने वाले अन्तरिक्ष जल की चर्चा की है।

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भूमिगत जलविज्ञान का विस्तृत विवेचन वराहमिहिर ने ‘बृहत्संहिता के ‘दकार्गल’ नामक 54वें अध्याय में किया है। ‘दकार्गल’ वस्तुतः ‘उदकार्गल’ के लिए प्रयुक्त शब्द है। ^उदक’ जल को कहते हैं ‘अर्गल’ का अर्थ है रुकावट अर्थात् जल की प्राप्ति में होने वाली बाधा। वराहमिहिर के अनुसार जिस विद्या या शास्त्र से भूमिगत जल की बाधाओं का निराकरण किया जा सके उस धर्म और यश को देने वाले ज्ञान विशेष को ‘दकार्गल’ कहते हैं -

“धर्म्यं यशस्यं च वदाम्यतोऽहं दकार्गलं येन जलोपलब्धिः।”
 -बृहत्संहिता‚54.1
वराहमिहिर कहते हैं कि आकाश से केवल एक ही स्वाद वाला जल पृथिवी पर गिरता है किन्तु वही जल भूमि की विशेषता से अनेक रंग और स्वाद वाला हो जाता है। इसलिए जल की परीक्षा करनी हो तो पहले भूमि के रंग‚ रस और स्वाद की जांच करनी चाहिए-

“एकेन वर्णेन रसेन चाम्भश्च्युतं नभस्तो वसुधाविशेषात्।
 नानारसत्वं बहुवर्णतां च गतं परीक्ष्य क्षितितुल्यमेव।।”
 - बृहत्संहिता‚54.2

भूमिगत जलशिराओं का सिद्धान्त

जलविज्ञान के क्षेत्र में वराहमिहिर ने सर्वप्रथम इस भूवैज्ञानिक सिद्धान्त की स्थापना की है कि मनुष्यों के शरीर में जिस तरह नाड़ियां होती हैं उसी प्रकार भूमि के नीचे भी जलधारा को प्रवाहित करने वाली शिराएं होती हैं-

“पुंसां यथाङ्गेषु शिरास्तथैव क्षितावपि प्रोन्नतनिम्नसंस्था।”
 - बृहत्संहिता‚ 54.1

अर्थात पूर्व-पश्चिम‚ उत्तर-दक्षिण आदि आठ दिशाओं के स्वामी देवता हैं- इन्द्र‚ अग्नि‚ यम‚निऋर्ति‚ वरुण‚वायु‚सोम‚ और ईशान देव। उन्हीं दिशा-स्वामियों के नाम से प्रसिद्ध ‘ऐन्द्री’‚ ‘आग्नेयी’‚ ‘याम्या’ आदि आठ प्रकार की भूमिगत मुख्य जलशिराएं भी होती हैं तथा इनके मध्य में एक बड़ी जल की धारा होती है जिसे ‘महाशिरा’कहा जाता है। इन प्रमुख जलशिराओं से जुड़ी हुई भूमिगत जल की अन्य सैकड़ों जलशिराएं होती हैं जिनकी सहायता से भूमि के गर्भ में जल की सक्रियता बनी रहती है -

“पुरुहूतानलमयनिऋर्तिवरुणपवनेन्दुशङ्करा देवाः।
विज्ञातव्याः क्रमशः प्राच्याद्यानां दिशां पतयः।।
दिक्पतिसंज्ञाश्च शिरा नवमी मध्ये महाशिरानाम्नी।
एताभ्योऽन्याः शतशो विनिसृता नामभिः प्रथिताः।।”
                                - बृहत्संहिता‚ 54-3.4

वराहमिहिर ने ‘बृहत्संहिता के ‘दकार्गल  नामक 54वें अध्याय में क्षेत्र, देश आदि के अनुसार विभिन्न वृक्षों-वनस्पतियों,जलीय जीवों, मिट्टी के रंग, पथरीली जल चट्ठानों आदि की निशानदेही करते हुए भूगर्भस्थ जल की उपलब्धि हेतु पूर्वानुमान पद्धतियों का वैज्ञानिक धरातल पर विश्लेषण किया है। यहां यह भी बताया गया कि किस स्थिति में कितनी गहराई पर जल हो सकता है। फिर अपेय जल को शुद्ध कर कैसे पेय बनाया जाय, यह विधि भी बताई गई है। वराहमिहिर के इस विवरणात्मक ज्ञान से सूखे तथा अकालपीड़ित प्रदेशों में भी भूगर्भस्थ जल की प्राप्ति का प्रयास किया जा सकता है। वराहमिहिर ने अपने समय में प्रचलित लोकविश्वासों और जलवैज्ञानिक मान्यताओं की परीक्षा करके भावी जनता के लिए मार्गदर्शन का महत्त्वपूर्ण कार्य किया है, जिससे विभिन्न क्षेत्रों के लोग भूगर्भस्थ जल का स्वयं परीक्षण कर सकें और तदनुसार कुएं, बावड़ी, तालाब आदि खोदकर जल प्राप्त करने का प्रयास कर सकें साथ ही उन उपायों से प्राणियों तथा फसलों के लिए भी पानी उपलब्ध करा सकें।

प्राचीन काल के कुएं बावड़ियां आदि जो आज भी उपलब्ध हैं उनमें बारह महीने निरंतर रूप से शुद्ध और स्वादिष्ट जल पाए जाने का एक  कारण यह भी है कि ये कुएं या बावड़ियां हमारे पूर्वजों ने वराहमिहिर द्वारा अन्वेषित जलान्वेषण की पद्धतियों का अनुसरण करके बनाई हैं। वराहमिहिर का जलान्वेषण विज्ञान भूगर्भस्थ जल की प्राप्ति हेतु न केवल भारत अपितु विश्वभर में कहीं भी उपयोगी हो सकता है।
 

भारतीय जलवैज्ञानिक वराहमिहिर ने पृथिवी, समुद्र और अन्तरिक्ष तीनों क्षेत्रों के प्राकृतिक जलचक्र को संतुलित रखने के उद्देश्य से भूमिगत जलस्रोतों को खोजने और वहां कुएं, जलाशय आदि निर्माण करने वाली पर्यावरण मित्र जल संग्रहण विधियों का भी महत्व् पूर्ण आविष्कार किया है । ‘बृहत्संहिता’ के ‘दकार्गल’ अध्याय में 86 प्रकार के वृक्षों, विविध प्रकार की वनस्पतियों, नाना प्रकार के जीव-जन्तुओं और अनेक तरह के शिलाखण्डों की निशानदेही करते हुए भूमिगत जलस्रोतों को खोजने के वैज्ञानिक फार्मूले बताए गए हैं। उदाहरण के लिए वराहमिहिर कहते हैं कि यदि जलविहीन प्रदेश में बेंत का वृक्ष दिखाई दे तो उस वृक्ष के पश्चिम दिशा में तीन हाथ पर डेढ पुरुष प्रमाण यानी साढे सात क्यूबिट्स गहराई तक खोदने पर जल प्राप्त होता है। खोदे गए गड्ढे में पीले रंग का मेंढक, पीले रंग की मिट्टी और परतदार पत्थर का निकलना इस जलप्राप्ति के पूर्व संकेत हैं। ये सब लक्षण यह भी प्रमाणित करते हैं कि उस भूखण्ड के गर्भ में पश्चिम दिशा की जलनाड़ी सक्रिय है -

“यदि वेतसोऽम्बुरहिते देशे हस्तैस्त्रिभिस्ततः पश्चात्।
सार्धे पुरुषे तोयं वहति शिरा पश्चिमा तत्र।।
चिह्नमपि सार्धपुरुषे मण्डूकः पण्डुरोऽथ मृत्पीता।
पुटभेदकश्च तस्मिन् पाषाणो भवति तोयमधः।।”
                             - बृहत्संहिता, 54.6-7

जामुन के वृक्ष की पूर्व दिशा में यदि दीमक की बांबी (वल्मीक) दिखाई दे तो उसके समीप दक्षिण दिशा में दो पुरुष यानी दस क्यूबिट्स के माप का गड्ढा खोदने से स्वादिष्ट जल की प्राप्ति होती है। आधे पुरुष (ढाई क्यूबिट्स ) तक गहरा खोदने पर मछली, कबूतर के रंग का काला पत्थर और नीले रंग की मिट्टी मिलेगी। ये पदार्थ वहां भूमिगत जलप्राप्ति के पूर्व लक्षण हैं -

“जम्बूवृक्षस्य प्राग्वल्मीको यदि भवेत्समीपस्थः।
तस्माद्दक्षिणपार्श्वे सलिलं पुरुषद्वये स्वादु।।
अर्धपुरुषे च मत्स्यः पारावतसन्निभश्च पाषाणः।
मृद्भवति चात्र नीला दीर्घंकालं बहु च तोयम्।।” 
                        - बृहत्संहिता, 54.9-10

वराहमिहिर का यह भी मत है कि जिस वृक्ष की शाखा नीचे की ओर झुकी हो और पीली पड़ गई हो तो उस शाखा के नीचे तीन पुरुष यानी 15 क्यूबिट्स खुदाई करने पर जल की प्राप्ति अवश्य होती है -

“वृक्षस्यैका शाखा यदि विनता भवति पाण्डुरा वा स्यात्।
विज्ञातव्यं शाखातले जलं त्रिपुरुषं खात्वा।।” 
                                      - बृहत्संहिता, 54.55

भूमिगत जल की शिरा किस दिशा में सक्रिय है यह जानने के लिए भी वराहमिहिर की ‘बृहत्संहिता’ में वृक्षों द्वारा की गई निशानदेही से जुड़े निम्नलिखित फार्मुले बहुत उपयोगी हैं -
 1.आकगूलर के पास दीमक की बांबी (वल्मीक) हो तो बांबी के नीचे सवा तीन पुरुष (सवा सोलह क्यूबिट्स) खोदने पर पश्चिमवाहिनी शिरा निकलती है -

“अर्कोदुम्बरिकायां वल्मीको दृश्यते शिरा तस्मिन्।
पुरुषत्रये सपादे पश्चिमदिक्स्था वहति सा च।।”
                           - बृहत्संहिता, 54.19

 2.जलरहित क्षेत्र में कपिल वृक्ष से तीन हाथ पूर्व में दक्षिण शिरा बहती है -

“जलपरिहीने देशे वृक्षः कम्पिल्लको यदा दृश्यः।।
प्राच्यां हस्तत्रितये वहति शिरा दक्षिणा प्रथमम्।।” 
                                    –बृहत्संहिता,54.21

 3.बेल व गूलर के पेड़ जहां इकट्ठे हों तो उनके दक्षिण में तीन हाथ दूर तीन पुरुष (15 क्यूबिट्स )  नीचे जल होता है। और आधा पुरुष (ढाई क्यूबिट्स) खोदने पर काला मेंढक निकलता है -

“बिल्वोदुम्बरयोगे विहाय हस्तत्रयं तु याम्येन।
पुरुषैस्त्रिभिरम्बु भवेत् कृष्णोSर्धनरे च मण्डूकः।।”
                                   -बृहत्संहिता, 54.18

 4.जहां पहले नीलकमल सी, फिर कबूतर वर्ण की मिट्टी दिखाई देती है। एक हाथ नीचे मछली निकलती है। उसमें चकोर जैसी दुर्गन्ध होती है तथा वहां पानी थोड़ा और खारा निकलता है -

“मृन्नीलोत्पलवर्णा कापोता चैव दृश्यते तस्मिन्।
हस्तेSजगन्धिमत्स्यो भवति पयोSल्पं च सक्षारम्।।” 
                                     -बृहत्संहिता,54.22

5.बहेड़े (विभीतक) के पेड़ की निशानदेही करते हुए वराहमिहिर का कथन है कि इसके आस पास ही कहीं दीमक की बांबी (वल्मीक) हो तो उस पेड़ के दो हाथ पूर्व में डेढ़ पुरुष(साढे सात क्यूबिट्स) नीचे जलशिरा होती है -

“आसन्नो वल्मीको दक्षिणपार्श्वे विभीतकस्य यदि।
अध्यर्धे तस्य शिरा पुरुषे ज्ञेया दिशि प्राच्याम्।।” 
                                    -बृहत्संहिता,54.24

6.बहेड़े पेड़ के पश्चिम में बांबी (वल्मीक) हो तो वृक्ष से एक हाथ उत्तर में साढ़े चार पुरुष(साढे बाइस क्यूबिट्स) नीचे जलशिरा होती है -

“तस्यैव पश्चिमायां दिशि वल्मीको यदा भवेद्धस्ते।
तत्रोदग्भवति शिरा चतुर्भिरर्धाधिकैः पुरुषैः।।”
                                      -बृहत्संहिता,54.25 

      
प्राचीन काल के जो कुएं बावड़ियां आदि आज उपलब्ध हैं उनमें बारह महीने निरंतर रूप से शुद्ध और स्वादिष्ट जल पाए जाने का एक  कारण यह भी है कि ये कुएं या बावड़ियां हमारे पूर्वजों ने वराहमिहिर द्वारा अन्वेषित जलान्वेषण की पद्धतियों का अनुसरण करके बनाई हैं। परन्तु आज हम उनकी उपयोगिता की उपेक्षा करके पानी-पानी के लिए तरस रहे हैं। पर्याप्त वर्षा के अभाव तथा इनके निकस्थ वृक्षों को काट देने से भी इन जलाशयों का भूमिगत जल रिचार्ज होना बंद हो गया है जिसकी वजह से इनमें से कई पुराने वापी-कूप जलविहीन हो गए हैं। इधर अतीत में अखण्ड स्रोत के रूप में बहने वाली नदियां गाड़ गधेरे तालाब आदि भी बहुत अधिक दोहन हो जाने से वे सूखते गये। अधिक गहाराई में आज जो जलस्रोत बचे हुए हैं उनमें भी आज नलकूपों द्वारा भारी मात्रा में दोहन हो जाने से भूगर्भस्थ जल का अभाव होता जा रहा है। 

इस प्रकार पारंपरिक जलसंसाधनों की उपेक्षा और उनका निर्ममता से दोहन करने के कारण भूमिगत जलस्तर गिरता गया और गिरते जलस्तर के कारण पारम्परिक वृक्ष भी सूखते गये। कृषि-उपयोग या बढ़ती बस्तियों के लिए तथा लकड़ी के व्यवसायियों ने इस बेरहमी से वृक्षों की कटाई की कि वे पारम्परिक वृक्ष लुप्त होते चले गये। परिणामतः जिन वनस्पतियों के आधार पर परम्परागत जलविज्ञान जल-संस्थानों की निशान देही करता रहा है , पहले तो वे वृक्ष और वनस्पतियां ही नहीं बचीं जिनसे जलबोध हो सकता। तब भी अभी भी जहाँ जो वृक्ष-वनस्पतियां एवं मिट्टी, पत्थर आदि बचे हैं वहां वराहमिहिर के जलान्वेषण विज्ञान के द्वारा जलस्थिति का ज्ञान हो सकता है। वैसे भी ये लक्षण ऐसे हैं जो न केवल भारत अपितु विश्वभर में कहीं भी उपयोगी हो सकते हैं और इन लक्षणों के आधार पर विश्व में कहीं भी भूगर्भस्थ जल की प्राप्ति के प्रयास किये जा सकते हैं।

वस्तुतः वराहमिहिर का जलविज्ञान प्राकृतिक संसाधनों का उपभोक्तावाद की भावना से संदोहन करने वाले विकासवादियों का जलविज्ञान नहीं है, बल्कि यह विज्ञान सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड में शान्ति की कामना करने वाले प्रकृति के उपासकों का जलविज्ञान है। जलचर, भूमिचर और नभश्चर सभी जीवधारियों का कल्याण चाहने की कामना से ही वराहमिहिर ने रेगिस्तान जैसे निर्जल प्रदेशों में भूमिगत जलस्रोतों को खोजने के नए नए उपाय बताए। परम्परागत शैली के कूप, तडाग, सरोवर आदि जलाशयों के कारण भारत का प्रत्येक गांव और नगर जल की आपूर्ति की दृष्टि से यदि आत्मनिर्भर बन सका तो उसका श्रेय वराहमिहिर के पर्यावरणवादी जलविज्ञान और कौटिलीय अर्थशास्त्र की लोकाराधक जलप्रबन्धन व्यवस्था को ही दिया जा सकता है।


3 Comments

Amanda Martines 5 days ago

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