वास्तु निर्माण द्वारा रसानुभूति

Author
डॉ.गणेश मिश्र
आचार्य, केन्‍द्रीय संस्‍कृत विश्‍वविद्यद्यालय, सदाशिवपरिसर पुरी

मन्दिर राजप्रासाद तथा दुर्ग इत्यादि वास्तुकृतियाँ स्व स्व नियमानुसार अनेक रूपो में विचारित होते हुए भी मुख्यतया दो रूपों में विचारणीय है, जिसमें प्रथमतः वास्तुकृति का स्थूल रूप दृष्टिगत होता है तथा द्वितीयतः वह दर्शक की कल्पना-शक्ति को जागृत कर उसे विभिन्न रूपों में प्रभावित करती है। प्रयोग जगत में वास्तुकृति उद्दीपन या आलम्बन के रूप में कार्य करती है तथा सहृदय दर्शक में विभिन्न रसों का संचार कर उसे आनन्दित करती हैं। सभी पुरातन मन्दिर, प्रासाद या दुर्ग इत्यादि प्रथम दर्शन में दर्शक को आकर्शित तो कर ही देते है, वह वास्तुकलाकार के कल्पनालोक में विचरण करने लगता है तथा अपनी कल्पना शक्ति से उससे मौन वार्तालाप कर आत्मिक आनन्द का अनुभव करता है। दर्शक के अन्तः करण में वास्तुकृति जो आश्चर्य का भाव उत्पन्न करती है, उसी को शास्त्रीय भाषा में अद्भुत रस कहा गया है। भरत मुनि ने ठीक ही कहा है कि देवालय एवं सभा भवन ऐसी वस्तुएँ हैं जिनसे  अद्भुत रस का अनुभव उद्भूत  होता है। 1*भोज ने भी वास्तुकृतियों केा अद्भुत रस के स्थायी भाव विस्मय का उद्भावक माना है। 2* सुप्रसिद्ध आंग्ल कलातत्व मर्मज्ञ बर्क ने भी वास्तुकला की महान कृतियों को विस्मय भाव का जनक कहा है जो अन्तः करण में इस प्रकार व्याप्त हो जाता है कि अन्य भावों का प्रवेश संभव नही रहता। 3*

दर्शक वास्तुकृतियों के वाह्यरूप के साथ ही उसमें निवास करने वाले देवता या मानव के विषय में चिन्तन करने के लिए बाध्य होता है। वास्तुनिर्माता की महत्वाकाक्षाएँ, उसकी आन्तरिक भावनाएं तथा उसके भौतिक एवं काल्पनिक दृष्टिकोण इन वास्तुकृतियों से दर्शक के मानस-तल पर प्रतिबिम्बित होते हैं। कलात्मक अनुभव दर्शक के अन्तः स्थायी भावों से तादात्म्य स्थापित कर अलौकिक आनन्द का पल्लवन करते है। दर्शक वही रस अनुभव करता है जिस रससिद्धि के लिए वास्तुकृति का निर्माण हुआ है। 

किसी राज प्रासाद को देखकर दर्शक उसके निर्माता शासक से तादात्म्य स्थापित करता है। राजप्रासाद की निर्माण शैली शासक की सौन्दर्य कल्पना के अनुकूल निर्धारित होती है, इसे वास्तु रूप में शासक के रतिभाव का अभिव्यक्ती करण कह सकते हैं। दर्शक को भी इसके दर््शन से रति की अनुभूति होती है तथा श्रृंगार रस का संचार होता है। भोज ने समरांगण सूत्रधार में राजप्रसाद को रति का वास-स्थान कहा है।

 

रतेरावासभवनम् विस्मयैकमास्पदम् ।

यथावद् देवतादीनां रूपचेष्टादिदर्षनात्।। 4*

 

  किसी दुर्ग के दर्शन से शासक के उस उत्साह गुण की प्रतिध्वनि साथ होती है। दर्शक उसे देखकर आश्चर्यचकित अवश्य होता है। किन्तु जब वह उसके निर्माता के विषय में चिन्तन करता है तो वीर रस से ओतप्रोत होता है। मन्दिरों से तो रस वैभिन्य का संचार होता है। महात्मा बुद्ध के मन्दिर केा जब दर्शक बाहर से देखता है तो मूर्ति दर्शन का स्वाभाविक कौतूहल उत्पन्न होता है। महात्मा बुद्ध की शान्ति मय मूर्ति देखकर दर्शक बुद्धत्व में विलीन हो जाता है तथा उससे भी आत्मिक शान्ति की अनुभूति होती है। यह मन्दिर करूण रस का स्त्रोत होता है। उसे बुद्ध का जीवन दर्शन स्मरण होता है जो करूण रस से आप्लावित है। 

वास्तुकला रस के सम्बन्ध में काव्य एवं संगीत से भी महत्तर है। काव्य एवं संगीत एक समय एक ही रस का संचार करते हैं किन्तु वास्तुकला से क्षण-क्षण नूतन रसों का संचार होता है। जैसे ही दर्शक की दृष्टि मन्दिर के उत्तुंग शिखर पर पड़ती है, वह आश््चर््य चकित होता है। मन्दिर की बाह्य दीवारों पर बनी मूर्तियों से विषयानुकूल विभिन्न रसों की अनुभूति होती है यदि मूर्तियां मिथुन चित्रण करती हैं, तो श्रृंगार रस, यदि देव या पशु जगत से सम्बद्ध है तो करूण रस तथा यदि अलौकिक जगत से सम्बद्ध है तो हास्य रस का अनुभव होता है। जब वह मन्दिर के गर्भगृह मंें प्रविष्ट होता है तो देवता के स्वरूप-अनुकूल रसों का सचार होता है। इस प्रकार अल्पकाल में ही वास्तुकला दर्शक को विभिन्न रसों में निमज्जित कर सौन्दर्य की चरमानुभूति कराती है। 

रूप शिल्प - मानव भाव एवं कल्पनाओं का भौतिक धरातल पर अवतरण ही काव्य में शब्द तथा  रूप है जो मुख्यतः वास्तु, मूर्ति एवं चित्र रूप में दृष्टिगोचर होता है प्रारम्भ में कला प्रतीकात्मक प्रधान थी, विभिन्न देवीं-देवताओं या प्रासादों को प्रतीकों के माध्यम से व्यक्त किया गया था। वास्तुरूप तो निस्सन्देह वैदिक युग से ही प्राप्त होने लगता है किन्तु मूर्ति के सम्बन्ध में अनेक भ्रान्तियाॅं है। भारतीय कला साहित्य की भाँति लक्षणाशक्ति से सम्पन्न है। इसके वाह्य रूप में जो अन्तः भाव निहित होता है, वही व्यक्ति केा चिन्तन के लिए वाध्य करता है। अन्तः शक्तियों की अभिव्यक्ति के लिए रूप की आवश्यकता पड़ी। फलतः हमारी कला से रूप एवं अर्थ का एक अद्भुत संयोग है। सौन्दर्यशास्त्र भावप्रधान होता है, वह आध्यात्मिक शक्ति से सम्प्रक्त होता है। विष्णु पुराण में विष्णु के दो रूप ( 1-परमरूप एवं 2-विश्वरूप ) प्राप्त होते हैं। एक रूप में वह जीवों में निवास करते है तो द्वितीय रूप में जीवधारी शरीर से सभी के प्रत्यक्ष होते हैं। 5* कालिदास ने भी रूप को शरीर एवं अर्थ (भाव) को प्राण माना है, रूप को माता एवं अर्थ को पिता कहा है तथा दोनों में तादात्म्य स्थापित कर उसी की उपासना के साथ अपने महाकाव्य ’रघुवंश‘ का श्री गणेश किया है। 

 

वागार्थाविवसम्पृक्तौ वागर्थप्रतिपत्तये। 6*

जगतः पितरौ वन्दे पार्वतीपरमेश्वरौ।।

 

कला का प्राण, रस - भाव जिस रूप में अपने के मानव दृष्टि के समक्ष उपस्थित करता है उसी को ‘रूप’ कहते हैं। भाव निरपेक्ष एवं निर्विकार होते है किन्तु जब उन्हे कोई कलेवर प्रदान कर दिया जाता है वह दृष्ट रूप इहलौकिक पर्यावरण से पूर्णतः प्रभावित होता है। 

वास्तुकला अलंकार - काव्य की भाँति कला में भी अलंकार वैदिक युग से ही विभिन्न रूपों में प्रचलित रहे हैं। वास्तुकला के बाह्य एवं आभ्यन्तर अलंकार के लिए आश्रित कलाओं केा अलंकार के रूप में प्रयुक्त किया गया है।

भारतीय सौन्दर्यशास्त्र में वास्तुकला की आश्रित कलाओं के रूप में मूर्तिकला एवं चित्रकला का विवरण प्राप्त होता है। वास्तव में वास्तुकला एवं  मूर्तिकला एक दूसरे के पूरक हैं। वास्तुविद्या के साथ ही प्रतिमालक्षण एवं चित्रलक्षण के विवरण शिल्पशास्त्रों में उपलब्ध होते हैं। इन्हें ‘आश्रित कला’ नाम से सम्बोधित करने का तात्पर्य यह है कि इनका मुख्य उद्देष्य वास्तुरचना की शोभावृद्धि है। मूर्ति की उपादान सामग्री के रूप में नौ धातुएँ -स्वर्ण, रजत, ताम्र, प्रस्तर, काष्ठ, लेप, प्रस्तरचूर्ण, शीशा तथा मृत्तिका वर्णित है। इन विविध धातुओं से निर्मित मूर्तियाँ एवं चित्र ही वास्तुकला में प्राण की स्थापना करते हैं। स्कन्दोपनिषद् का यह सूत्र उल्लेखनीय है कि देवालय शरीर है तो उसमें प्रतिष्ठित देव प्रतिमा जीव या आत्मा है, 

 

देहो देवालयो प्रोक्तो जीवो देवः सनातनः।

 

यदि गर्भगृह में स्थापित देवमूर्ति प्राण है, मन्दिर शरीर है तो मन्दिर या अन्य वास्तुकृति के विभिन्न भागों में मूर्तियों एवं चित्रों का रूप-संयोग शारीरिक अलंकरण है। वास्तुकला में अलंकरण का प्रादुर्भाव मानव की उस सहज प्रवृत्ति का सूचक है कि वह सर्वत्र सौन्दर्यदर्शन का अभिलाषी होता है। यह सौन्दर्य अन्तः एवं बाह्य दोनों रूपों में कल्पित है। अन्तः सौन्दर्य यदि कला की लक्षण या व्यंजना शक्ति में निहित है तो बाह्य सौंन्दर्य अलंकरण योजना में । अलंकरण वास्तुकृतियों के रिक्त स्थानों के पूरक अवश्य हैं किन्तु ये इतने उद्देश्यपूर्ण एवं संयमित होते हैं कि वास्तुकला के अविभाज्य अंग प्रतीत होते हैं। 

भारतीय कला में अलंकरण के मुख्यतः तीन अभिप्राय प्रचलित है। 7* 1. रेखाकृतिप्रधान 2. पत्रवल्लरी प्रधान. 3. ईहामृग या कल्पनाप्रसूत पशुपक्षियों की आकृतियाँ। कलाकार अपनी कलात्मक प्रतिभा के बल पर इन अभिप्रायों का प्रयोग भिन्न-भिन्न रूप से करता है। प्रकृति ही इन अलंकरण-साधनों का मूल स्त्रोत है। गर्भगृह की प्रतिष्ठित मूर्ति के अनुकूल उसके चतुर्दिक अन्तः एवं बाह्य दीवारों को मूर्तियों एवं चित्रों से अलंकृत किया जाता है। यदि स्तूप महात्माबुद्ध के जीवन की विभिन्न घटनाओं से सम्बन्ध आकृतियों से अलंकृत किए जाते हैं तो मन्दिर भी मुख्य मूर्ति से सम्बद्ध आश्रित कलाओं से पूर्ण होते हैं जिससे मन्दिर में प्रवेश के पूर्व ही मुख्य मूर्ति का प्रतिबिम्ब हृदय पर अंकित होने लगता है। हमारी पुरातन परम्पराएं भी इन अलंकरणों को प्रभावित करती है। शुभ एवं अशुभ की कल्पना अनादि काल से ही प्रचलित है। यदि शुभ अर्थ में पूर्णघट, स्वस्तिक, पद्य, हस्ति इत्यादि अभिप्राय चित्रित किए जाते है तो अशुभ के विजेता गणेश या उनके आयुधों का चित्रण भी स्वाभाविक ही है। इसलिए धार्मिक एवं अलंकरणार्थ मूर्तियों का सृजन किया गया है। ये मूर्तियाँ काव्य के शब्दालंकार एवं अर्थालंकार की भाँति वास्तु के बाह्य एवं आभ्यन्तर सौन्दर्य में वृद्धि करती हैं। धार्मिक मूर्तियाँ आभ्यन्तर एवं अलंकरणार्थ मूर्तिया बाह्य सौन्दर्य के प्रतीक हैं। कुछ मुर्तियाँ तो उभयान्तर छटा का वर्द्धन करती हैं। इसी प्रकार चित्र भी मुख्यतः बाह्य सौन्दर्य को ही द्युतिमान् करते है। 

मूर्ति अथवा चित्र वास्तु के अनुरूप हों तभी सौंन्दर्य वृद्धि में समर्थ होते हैं। यदि किसी वृद्धा नारी या कुरूपा नारी को आभूषणों से अलंकृत किया जाय तो वह उपहास का केन्द्र बनेगी, उसी प्रकार असन्तुलित एवं अनावश््यक रूप से मूर्ति या चित्रों से वास्तकृति केा आच्छादित कर दिया जाय तो वह सौन्दर्य वृद्धि के स्थान पर श्रीहीन कृति प्रतीत होगी। 

 

यदि भवति वचष्च्युतं गुणेभ्यो वपुरिव यौवनवन्ध्यमंगनायाः।

अपि जनदयितानि दुर्भगत्वं नियतमलंकरणानि संश्रयन्ते।। 8*

 

 विभिन्न मुद्राओं की मूर्तियाॅ, देव-वाहन, देवायुध, पशु, पत्र तथा पुष्प इत्यादि अलंकरण वास्तुकला में सरसता उत्पन्न करती है। इसलिए प्रतिमाशास्त्रीय ग्रन्थों में प्रतिमाओं की ऊँचाई, हस्त-लांछन, शारीरिक मुद्रा, मुखमुद्रा, पादस्थिति एवं आभूषणों के सम्यक्, विधान वर्णित हैं जिससे कोई सौन्दर्यनियमति क्रमण न हो। उन्ही मूर्तियों को सुरम्य कहा गया है जो शास्त्रीय नियमानुसार निर्मित होती है। 

‘‘ शास्त्रमानेन यो रम्यः स रम्यो नान्य एव हि’’ ऐसी ही मूर्तियाँ रसानुभूति कराने में सक्षम होती है। भोज ने प्रतिमाविवरण में रस ‘रस-दृष्टि-लक्षण’ को विषिष्ट महत्व प्रदान किया है। 

 

रसानामथ वक्ष्यामो दृष्टीनामिह लक्षणाम्। 9*

तदायन्तायतष्चित्रे भावव्यक्तिः प्रजायते।।

 

मूर्तियाँ अपनी मुद्राओं से कलाकार के आन्तरिक भावों की ओर संकेत करती हैं। मौन रह कर भी मूर्तियाँ सहृदय व्यक्ति के समक्ष अपना अन्तः भाव उद्घाटित कर देती हंै, यह भारतीय मूर्तिकला की चरम उपलब्धि है। यहाॅँ तक कि पशु-पक्षियाँ भी अपने-अपने हाव-भाव से अपने परिवेष को प्रकट कर देती हैं। सहृदय कला पारखी इनके दर्शन से इहलौकिक जीवन -विषमताओं को विस्मृत कर पारलौकिक आनन्द की अभुभूति करता है। योगी की भाँति रसिक दर्शक ध्यान योग से कला के सौन्दर्य रस का पान करता है। भावविहीन कला तो वह सुन्दर रमणी है जो पतिहीना हो। जिस प्रकार विश्वरूप में विष्णु का अध्यात्म रूप होता है। जिसके ध्यान से आत्मशुद्धि होती है। उसी प्रकार कला के अन्तः भाव से उत्प्रेरित दर्शक का हृदय या मन भी कलुषहीन हो जाता है।

 

तद्रूपं विष्वरूपस्य तस्य योगयुजा नृप ।

चिन्त्यात्मविषुद्धय्र्थं सर्व किल्विषनाषनम्।।

यथाग्निरूद्धतषिखः कक्षं दहति सानिलः।

तथा चित्तस्थियों विष्णुर्योगिनां सर्वकिल्विषम्।। 10*

 

इस प्रकार शास्त्रीय युग में सौन्दर्यशास्त्र के विभिन्न नियम एवं परम्पराएँ स्थिर हुई जिन्हे शताब्दियों के अनुभव एवं प्रयास का परिणाम कह सकते है। साहित्य में सौन्दर्यशास्त्र के जो गुण वर्णित है, कला में उन्हे प्रायोगिक रूप प्रदान किया गया है। ‘रस कला की आत्मा है, अलंकार उसके श्रृंगारप्रसाधन है, तथा रूप दोनों का सामंजस्य है। इनके दर्शन से मानव हृदय का अगाध भाव-समुद्र तरंगायित होता है।’’ यही सच्ची कला एवं सौन्दर्यशास्त्र की कसौटी है। भारतीय कला इस परिक्षण में पूर्णतः सफल है। भोज ने ठीक ही वास्तुब्रह्म से अखिल विष्व को व्याप्त माना है। 

 

वास्तु ब्रह्म सदा विष्वं व्याप्नोति सकलं जगत्।

वास्तुब्रह्म ससजादौ विष्वमप्यखिलं तथा।। 11*

संदर्भ सूची / References

1. अभिनव भारती,  भाग 1 , पृ0  330
2. समरांगणसूत्रधार पृ0 455
3. स्वतंत्रकलाशास्त्र पृ0 623
4. समरांगणसूत्रधार अ......31/19
5. विष्णु पुराण 6,7,54
6. रघुवंश प्रथसर्ग श्लो.1
7. डाँ अग्रवाल, भारतीय कला पृ0 5
8. काव्यालंकार सूत्र वृत्ति, 3,1,21
9. समरांगणसूत्रधार , पृ0 82
10. विष्णुपुराण, 6,7,73-74
11. समरांगणसूत्रधार अ... 2 श्लो, 4


3 Comments

Amanda Martines 5 days ago

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