शैक्षणिक संस्थानों के अंतर्गत विश्वविद्यालय संरचना और वास्तु-शास्त्र
मनुष्य के सर्वांगीण विकास में शिक्षा की महत्वपूर्ण भूमिका होती है। और व्यक्तित्व निर्माण में तो शिक्षा का योगदान सर्वाधिक माना गया है। शिक्षा न केवल ज्ञान प्राप्ति का साधन मात्र है, अपितु यह हमें रोजगार भी प्राप्त कराती है। उच्च व्यक्तित्व और उन्नत जीवन स्तर के साथ साथ विनम्रता और आत्मनिर्भरता जैसे विशेष गुणों को भी जागृत करती है। अतः जीवन में शिक्षा की आवश्यकता पग पग पर होती है। यद्यपि आधुनिक युग में शैक्षणिक संस्थाओं के रूप में विद्यालयों, महाविद्यालयों, विश्वविद्यालयों आदि के बहुमंजिले व विशाल इमारतों वाले सुख सुविधाओं से युक्त भव्य भवन बने हैं। तथापि शिक्षा के स्तर में गुणवत्ता की कमी दिखाई पड़ती है । यदि हम इस विषय पर चिंतन करतें हैं तो इसका एक ही मुख्य कारण समुचित प्रवेश का अभाव पाते हैं। इसी परिवेश को आधार बनाकर अनेक पाश्चात्य शिक्षाविदों के द्वारा शैक्षणिक संस्थाओं के मानचित्र संरचना में अनेक अनुसंधान क्रियान्वित हो रहे हैं। जबकि शैक्षणिक संस्थाओं के उत्तम परिवेश हेतु वास्तु शास्त्र के अष्टादश[1] प्रवर्तकों ने प्राचीनकाल में ही कुछ सरल और अति विशिष्ट नियमों का प्रतिपादन किया है। यदि कहा जाए कि इन्हीं नियमों के आधार पर तक्षशिला, विक्रमशिला, नालंदा जैसे विश्वविद्यालयों और गुरुकुलों की स्थापना कर भारत को विश्व गुरु बनाया गया था तो इसमें कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी।
इन वास्तु शास्त्र के मर्मज्ञ महर्षियों ने लोक कल्याण हेतु अपने को तपस्या की अग्नि में तपा कर वास्तु रूपी ज्ञान के सार को प्राप्त किया। यह वास्तु शास्त्र उतना ही प्राचीन है, जितनी की सृष्टि की उत्पत्ति। वास्तव में इसकी प्राचीनता सृष्टि की संरचना की स्थापना से ही स्पष्ट हो जाती है । क्योंकि इसी ब्रह्मांड में पृथ्वी, ग्रह, नक्षत्र, तारा, उल्कापिण्ड, धूमकेतु आदि की यथा क्रम में सुव्यवस्थित स्थापना ही है, जिसके सम्यक् संचालन और संतुलन के साथ स्वशक्ति[2] से गतिमान रहकर यह असंख्य प्राणियों का आश्रय बनता है ।[3] जिससे इस संसार रूपी भवन में प्रत्येक जीव अजीव जन्म व मृत्यु के चक्र के साथ गतिमान रहते हुए निरंतर संचरण करते हैं।
1. भृगुरत्रिवशिष्ठश्च विश्वकर्मा मयस्तथा।
नारदोनग्नजिचैवविशालाक्षः पुरन्दरः।
ब्रह्माकुमारोनन्दीश शौनको गर्ग एव च।
वासुदेवोऽनिरुद्धश्च तथा शुक्रबृहस्पती।
अष्टादशैते विख्यातावास्तु शास्त्रोपदेशकाः।
संक्षेपेणोपदिष्टं स्यात् यन्मनवेमत्स्य रूपिणः।
-( मत्स्य पुराण 252. 2-4)
2. स्वशक्त्या भूमिगोलोऽयं निराधारोऽस्ति खे स्थितः ।
पृथुत्वात्समवद् भाती चलोप्याऽचलवत् तथा।
आवृतोऽयं क्रमाच्चन्द्र-बुध-शुक्रार्क भूभुवाम्।
गोलैजीवार्किभानां च क्रमादूर्ध्वोध्वसंस्थितैः।।
- ( गोलपरिभाषा, श्लोक 10-11)
3. संग्रामेन्धकरूद्रयोश्चपतितो श्वेदोमहेशात् क्षितौ। तस्माद्भूतमभूच्चभीति जननं द्यावापृथिव्योर्महत्। तद्देवैः सहसा निगृह्य निहितं भूमावधो वक्त्रकम्। देवानां वचनाच्चवास्तु पुरुषं तेनैव पूज्यो बुधैः।।
(वास्तुरत्नावली पृ.सं. 45)
मानचित्र में दर्शाए गये कुछ प्रमुख विचारणीय विषयबिन्दु निम्नलिखित हैं -
1. भूखंड चयन और भूमि परीक्षण-(शल्योद्धार, भूपरिदृश्य) ।
2. आकार Shape/Design-(भूखण्ड का आकार, भवन का आकार, भवन की संरचना)।
3. शिक्षण संस्थान ( विश्वविद्यालय) परिसर का मानचित्र(Layout)
4. भूखंड की दिशा और और प्रवेश द्वार ।
5. कुलपति कार्यालय (V.C. Office)
6. अध्ययन कक्षाएं (Class Rooms)का निर्माण उनकी दिशाएं ।
7. सार्वजनिक कक्ष (Staff/Common Rooms)
8. पुस्तकालय (Library)
9. सभागार (Auditorium)
10. प्रयोगशाला (Laboratory)
11. क्रीड़ा स्थल (Play Ground)
12. देवालय (Temple)
13. चिकित्सा कक्ष (Medicale Room/Dispensary)
14. घास का मैदान, वाटिका (Savannah, Garden, Park)
15. पानी की व्यवस्था, नल आदि(R.O., Water Coolar)
16. कुआँ, बोरिंग, तालाब, झरना आदि(Well, Drilling, Pond, Water Fall)
17. लेखा विभाग(Accounts Section)
18. प्रशासनिक कार्यालय (Administrative Block)
19. बिजली (विद्युत) घर(Power House, Inverter, Generator Etc.)
20. कुलपति आवास (V.C. House)
21. मुख्य कर्मचारी आवास (Staff Quarters)
22. चतुर्थ श्रेणी कर्मचारी आवास (Fourth Grade Employee)
23. अतिथि गृह(Guest House)
24. छात्रावास महिला तथा पुरुष(Male/Female Hostel)
25. भोजन कक्ष (Mess)
26. परीक्षा विभाग(Examination Department)
27. जलपान गृह(Cafeteria/Canteen)
28. शौचालय प्रसाधन(Toilet)
शिक्षण संस्थानों के अंतर्गत विश्वविद्यालय एक विस्तृत और व्यापक इकाई है, जहां अध्ययन अध्यापन के अतिरिक्त अन्य कई गतिविधियों और विषय से संबंधित विभागों और वहां काम करने वाले कर्मचारियों के आवासीय भवन सहित अन्य अनेकों प्रकार के भवन भी होते हैं। यहां वास्तु शास्त्र के अनुसार ऐसे ही विश्वविद्यालय परिसर का भूपरिदृश्य और परिसर निर्माण संरचना का मानचित्र के द्वारा कुछ प्रमुख विषय वस्तुओं पर विचार कर रहे हैं। मानचित्र आगे के दिया गया है
जैसा की प्राचीनतम ज्ञान राशि वेद पुराण आदि ग्रंथों से स्पष्ट है कि सृष्टि के आदि में ही अंधकासुर और भगवान शिव का युद्ध हुआ। वास्तव में वह युद्ध ही सृष्टि उत्पत्ति की प्रक्रिया थी जिसने भगवान शिव के शरीर से निसृत श्वेद अथवा प्रकाश बिंदु(वास्तु पुरुष) को दिवस के रूप में और अंधकासुर (अंधकार) को रात्रि के रूप में स्थिर और संतुलित कर इस सृष्टि की परिकल्पना की। जिसके फलस्वरूप दिन, रात, पक्ष, मास, ऋतु, अयन, वर्ष आदि के रूप में भूत भावन भगवान् महाकाल के द्वारा लोकान्तक और कलनात्मक दोनों प्रकार की स्थूल और सूक्ष्म, मूर्त और अमूर्त भेद से काल की उत्पत्ति हुई।[1] और इस प्रकार इस सृष्टि में जीवन के योग्य अनुकूल परिस्थितियों और वातावरण का निर्माण हुआ।
जिस प्रकार किसी भी जीव य प्रक्रिया के विकास में तदनुकूल वातावरण और परिस्थितियों का अत्यधिक महत्व होता है, उसी प्रकार शिक्षा के विकास में वातावरण प्रकृति और परिस्थितियों की भी महत्वपूर्ण भूमिका होती है। प्राचीन भारतीय वास्तु शास्त्र के सिद्धांत और नियम शैक्षणिक विकास में भी तदनुकूल वातावरण और परिस्थितियों का निर्माण ही करता है। यह हमें सिखाता है कि कैसे शिक्षा के क्षेत्र में तदनुकूल सकारात्मक ऊर्जामय वातावरण का निर्माण किया जा सकता है। प्रस्तुत निबंध में हम बात करेंगे कि वास्तु शास्त्र के अनुसार शैक्षणिक संस्थानों की परिसरीय और भवन संरचना कैसी हो, जिससे शिक्षार्थियों, अध्यापकों, अधिकारियों, कर्मचारियों व समस्त शिक्षण संस्थान के विकास और उन्नति में सहायक सिद्ध हो सके ।
आइए जानते हैं की एक वास्तु शास्त्र सम्मत आदर्श शिक्षण संस्थान की संरचना कैसी होनी चाहिए, और क्यों ? इसके प्रमुख विचारणीय पक्ष (बिंदु) कौन कौन से होते हैं। उदाहरण के लिए आगे के पृष्ठ पर विश्वविद्यालय परिसर का मानचित्र प्रस्तुत किया गया है ।
4. लोकानामन्तकृत्कालः कालोऽन्यकलनात्मकः।
स द्विधा स्थूल सूक्ष्मत्वान्मूर्श्चाऽमूर्त उच्यते।।
प्राणादिः कथितो मूर्तस्त्रुट्याद्योऽमूर्तसंज्ञकः।
-(सूर्यसिद्धान्त, मध्यमाधिकार, श्लोक सं. 9-10 1½)
1.भूखंड चयन और परीक्षण-
सर्वप्रथम शिक्षा में स्वस्थ वातावरण हेतु शिक्षण संस्थानों के परिसर निर्माण के लिए विस्तृत भूखंड का चयन किया जाना चाहिए। अतः भूखंड चयन हेतु ध्यान रखने योग्य बिंदु इस प्रकार है - भूखंड राजमार्ग सड़क के अत्यधिक निकट ना हो, वह भूखंड राजमार्ग से सड़क के उत्तर पूर्व में स्थित हो तो उत्तम, भूखंड पर भवन निर्माण से पूर्व भूमि के गुण दोषों का विचार कर लेना चाहिए । वास्तु शास्त्र में भूखण्ड पर भवन निर्माण से पूर्व भूमि की गुणवत्ता का निर्धारण अथवा परीक्षण वर्ण, गंध, रस, रंग, प्लव, उर्वरता आदि के द्वारा किया जाना चाहिए।[1] इसके अतिरिक्त भूखण्ड का मार्ग वेद, भूखंड के कोणों का कटान, कोणों की वृद्धि इत्यादि का भी विचार कर लेना चाहिए। इस प्रकार परीक्षण अच्छे वास्तु शास्त्री के द्वारा करा के ही शैक्षणिक भवन का निर्माण कराना चाहिए । जिससे ब्राह्मणी भूमि, मधुर, रस, श्वेतवर्ण,[2] घृतगन्ध, पूर्व-उत्तर प्लव[3], कुशायुक्त, स्निग्ध गुण वाली भूमि ही शिक्षण संस्थान के लिए सर्वोत्कृष्ट रूप में स्वीकार्य है। अन्य गुणों वाली भूमि अन्य कार्यों में उपयुक्त हो सकती है परंतु शिक्षण केंद्रों के लिए सामान्य रूप से त्याज्य होंगी। भूमि परीक्षण में खात विधियों के द्वारा भी शुभ अशुभ भूमि का ज्ञान करना चाहिए। तदनन्तर खात के समय भूमि में दबी वस्तुओं की प्राप्ति के आधार पर भी विचार कर भूमि का शुभाशुभ ज्ञान किया जाता है,[4] जिसका फल इस प्रकार प्रकार है -
स्पष्टार्थचक्र
खनन से प्राप्त वस्तु |
फल |
|
1. |
दीमक, अजगर सर्प। |
सर्वनाशकारिणी |
2. |
तुषा(भूसा)अस्थी, वस्त्र, भस्म, अंडा |
गृहकर्ता की मृत्यु |
3. |
कपास |
दुःख |
4. |
दग्धकाष्ट |
रोगभय |
5. |
खप्पर |
कलह |
6. |
कौड़ी |
कलह |
7. |
लोहा |
गृहस्वामी मृत्यु |
शल्योद्धार- भूपरीक्षण के अंतर्गत भूखण्ड का शल्योद्धार किया जाता है। शल्योद्धार प्रक्रिया भू परीक्षण का प्राण और अत्यंत महत्वपूर्ण के साथ संवेदनशील प्रक्रिया है अतः शल्योद्धार शैक्षणिक भवन निर्माण में अवश्य करना चाहिए ।[5] आचार्यों ने शल्यदोष पुरुष प्रमाण (लगभग 6 फीट) गहराई तक माना है । इसलिए य तो शल्योद्धार विधि से शल्यज्ञान कर निकाल लेना चाहिए । अथवा पुरुष प्रमाण(6 फिट) गहरी मिट्टी को निकालकर नई साफ मिट्टी और पत्थरों से भरवा देना चाहिए।[6] शल्योद्धार किए बिना भूखंड पर निर्मित भवन, उस पर निवास करने वालों को शल्य ( काँटे) के समान पीड़ादायक होता है।
भूपरिदृश्य- यदि भूखंड के आसपास नदी, नाला, नहर, तालाब आदि हो तो शैक्षणिक भवन का निर्माण इन सब के दक्षिण पश्चिम में ही किया जाना उत्तम है। भूखंड शहर या भीड़ भाड़ वाले क्षेत्र में ना हो। फैक्ट्री, बस अड्डा, रेलवे स्टेशन, आदि से कुछ दूरी पर हो, बीच शहर से कुछ दूरी पर प्राकृतिक स्वच्छ वातावरण और एकांत में हो , जिस भूमि में मांगलिक औषधियों तथा वट, गूलर, साल आदि याज्ञिक वृक्ष हों, समतल सुंदर, मनोहारी भूमि हो। बिल और दरार जैसे दोषों से रहित हो, ऐसी भूमि आवास योग्य होती है।[7] भूमि पर्वत, पहाड़ी, टीले आदि के उत्तर पूर्व में तथा नदी नाले झरने तालाब कुंआ आदि के दक्षिण पश्चिम में होनी चाहिए । गर्ग आदि महर्षियों का मत है कि उक्त समस्त लक्षणों के अतिरिक्त जिस स्थान पर मन और नेत्रों को संतोष सुलभ हो, वहां पर सर्वरीति से भवन निर्माण किया जा सकता है।[8]
2.आकार(Shape/Design)
भूखण्ड का आकार- वास्तुशास्त्र मुख्य रूप से 16 [9] और 24 प्रकार की आकृतियों का वर्णन करता है। जिनमें से निम्न चार आकृति के भूखंड शिक्षण संस्थान हेतु श्रेष्ठ होते हैं -
1. आयताकार सर्वश्रेष्ठ और सभी प्रकार की सिद्धियों को देने वाली है।
2. वर्गाकार भूमि धनदायक,
3. वृत्ताकार भूमि बुद्धिवृद्धि कारक और
4.भद्राकार भूमि सभी तरह से कल्याण करने वाली होती है।[10]
भवन का आकार- भवन की संरचना अंग्रेजी के A C E, F, H, I, L, O, U आकारों पर बनाए जाने चाहिए।
भवन संरचना- शिक्षा व्यक्ति के जीवन में सर्वांगीण विकास को प्रभावित करती है। शिक्षा समाज को संस्कारित और चरित्रवान बनाती है इसलिए शिक्षा संस्थानों की भवन की संरचना का निर्माण भी उचित ढंग से और विशिष्ट सिद्धांतों पर बना होना आवश्यक हो जाता है यदि ऐसा नहीं होगा तो नहीं शिक्षक ढंग से पढ़ा पाएंगे और नहीं शिक्षार्थी सही तरीके से वास्तव रूप में शिक्षा ग्रहण कर पाएंगे और पूर्ण शिक्षित समाज की परिकल्पना से देश और समाज वंचित रहेंगे। फलस्वरूप देश व समाज का ही भारी नुकसान होगा।
भूखंड का मानचित्र (Layout)-
यहां औपचारिक शिक्षण संस्थान के अन्तर्गत वास्तु शास्त्र सम्मत है एक आदर्श विश्वविद्यालय परिसर की संरचना का मानचित्र (नक्शा) प्रस्तुत कर विचार कर रहे हैं।
05. निर्माणे पत्तनग्रामे गृहादीनां समासतः
क्षेत्रमादौ परीक्षेत गन्धवर्णरसप्लवैः।।
( नारदसंहिता वास्तुलक्षणाध्याय-31, श्लो. 1)
06 नारदसंहिता वास्तुलक्षणाध्याय-31, श्लो. 2, समरांगणसूत्रधार अष्टमोध्याय श्लोक. 48, शिल्पशास्त्रम्- 1,5
अथवा
ब्राह्मणानां सितोवर्ण: क्षत्रियाणाम् तू लोहित:।
वेश्यानां पातको वर्ण: शूद्राणाम् मासितस्तथा।
(महाभारत शांतिपर्व - 288. 5)
07 अत्यन्तं वृद्धिदं नृणामीशान् प्रागुदक् प्लवम्।
अन्य दिक्षु प्लवं तेषां शश्वदत्यन्तहानिदम्।
(नारदसंहिता अ.31 श्लोक- 3 1/2)
एवं
पूर्वप्लावाधाराश्रेष्ठा ह्यायुः श्रीबलवर्द्धिनी।
सर्वसम्पतकरी पुन्सा प्रसादानां विभूतिदा।।
राज्यपूज्यासदानन्दा प्राक्पलवाचेद्भवेन्मही।
आग्नेयप्लवका भूमिरग्निदाहभयावहा।।
शत्रुसंतापदानित्यं कलिदोग्निप्लव: स्मृतः।।
(अपराजितपृच्छा- सूत्र-51) श्लोक-13-16, पृष्ठ सं-257)
08 पिपीलिका षोडश पक्षनिद्रा भवन्ति चेत्तत्रवसेन्न कर्ता।
तुषास्थि चीराणि तथैव भष्मान्यन्डानि सर्पा मरणा प्रदास्यु।।
वराटिका दुःख कलिप्रदात्री कार्पास एवाति ददाति दुःखं।
काष्ठं प्रदग्धं त्वतरोगभीतिर्भवेत्कलि: खर्परदर्शनेन।।
लोहेन कर्तु मरणं निगद्यम् विचार्य वास्तु प्रदशन्ति धीरा:।
(बृहद्वास्तुमाला पृ सं-23)
09. संग्रहशिरोमणि - 20/43-46
10. वास्तुप्रबोधनी पृ. सं- 25
11. बृहदसंहिता वास्तु विद्याध्याय श्लोक- 89
12. मनसश्चक्षुषोर्यत्र संतोषो जयते भुवि।
तस्याङ्गकार्य्य गृहं सर्वैरिति गर्गादिसम्मतम्।। (ज्योतिर्निबन्ध पृ.सं. 165, 8)
13 विस्तीर्णम् समभागन्च संस्थितं परिकीर्तितम्।
चतुरस्त्रं चतुष्कोणम् समभागम् विभागता।
वृत्तमेतत् समाख्यातं वास्तुलक्षण कोविदै:।
चतुर्भिर्विभाजेत् कोण स्तद्वास्तु वृत्तमुच्याते।।
आयतं चतुरस्त्रं च मध्य कोष्ठ भवेत् फलम्।
यदि वर्तुल पीताभम् स्थानं भद्रासनम् विदुः।।
चक्रवक्रसमाकारे विजयं निम्नतोन्नतम्।
निम्नता चापकृष्ट च शक्र चापस्य कीर्तिता।।
त्रिकोणा शकटाकारं तदवास्तु कृदिहोच्यते।
दर्घिदण्ड मिति ख्यातं पवनं पवनात्मकम्।।
मुरजं मुरजाकारं ब्रह्नमध्यम प्रकीर्तिम।
अश्वत्थपर्णवत् कुम्भो धनु: कोण कृतिर्धनु:।।
शूर्पम् शूर्प निभं गेयं गृहं गणित कोविदै:।।
-(वशिष्ठ संहिता, उधृत वास्तुरत्नावलि पृ सं 19)
14. आयते सिद्धयस्सर्वश्चचतुरस्त्रे धनागमः।
वृत्ते तु बुद्धि बृद्धिः स्याद् भद्रं भद्रासने भवेत्।।
( वास्तुरत्नावलि पृ. सं - 20, वास्तुसारसंग्रह - 3.14-17)
5. कुलपति कार्यालय(V.C. Office)-
विश्वविद्यालय परिसर में कुलपति कार्यालय का निर्माण राहु के प्रभाव वाले भाग में बनाया जाना शुभ होता है इसके अंतर्गत निऋति देव का स्थान अर्थात् दक्षिण-पश्चिमी के मध्य का भाग नैऋत्य कोण के समीप दोनों तरफ का क्षेत्र आता है। यहां प्रदर्शित नक्शे में कुलपति कार्यालय वास्तु के अनुसार नैऋत्य कोण में ही बना है। जो कि उचित है। क्योंकि कुलपति ही सम्पूर्ण विश्वविद्यालय का स्वामी और प्रशासक होता है। इस स्थान पर बैठकर परिसर की सभी गतिविधियों सहित विश्वविद्यालय पर नजर और नियंत्रण रखा जा सकता है। इनके बैठने के लिए भी कार्यालय में सीट दक्षिण-पश्चिम के क्षेत्र में होनी चाहिए और मुख की दिशा पूर्व अथवा उत्तर की ओर होनी चाहिए ।
6. अध्ययन कक्षों (Class Rooms) का निर्माण, उनकी दिशाएं-
संस्थान में कक्षाओं की संख्या अधिक होती है अतः कक्षाओं को पश्चिम दिशा में नैऋत्य कोण से वायव्य पर्यन्त बनाया जाना चाहिए। यदि कक्षाओं की संख्या और भी अधिक चाहिए हो, तो दक्षिण दिशा में आग्नेय से नैऋत्य तक बनाए जा सकते हैं। इसके अतिरिक्त अन्य दिशाओं में भी कक्षायें बनाई जा सकती हैं, परंतु वास्तु के अनुसार कक्षाओं के मुख्य द्वार पूर्व या उत्तर में ही हों। कक्षाओं में ब्लैक बोर्ड उत्तर या पूर्व की दीवार पर हो। प्रदर्शित मानचित्र में कक्षाओं से संबंधित सभी विषय वस्तुओं का वास्तु ध्यान में रखकर उचित स्थान पर निर्माण किया गया है।
7. सार्वजनिक कक्ष(Staff/Common Room)-
स्टाफ रूम वायव्य दिशा में बने हैं जो कि अपने कार्य और प्रकृति के अनुसार वास्तु के अनुरूप उचित दिशा में ही हैं। इससे स्टाफ रूम में शिक्षकों का आवागमन बना रहेगा जिससे शिक्षक भी यहां अधिक समय व्यर्थ ना गवां कर अपने कर्तव्यों और दायित्वों के प्रति सदा सजग और जागरूक रहेंगे। और उनमें जागरूकता व स्फूर्ति बनी रहेगी। क्योंकि अधिकांश विभागों में देखा भी जाता है कि, कर्मचारी लंच के बाद स्टाफ रूम में आलस निद्रा तंद्रा से सुस्ताने, मोबाइल में घंटों तक फोन पर अनावश्यक बातें करना, जैसी क्रियाओं में समय पास करते हैं। अपने कर्तव्यों व दायित्वों से विमुख और उदासीन रहते हैं।
8.पुस्तकालय(Library)-
शिक्षण संस्थानों का पुस्तकालय अभिन्न अंग होता है इसके लिए बुध ग्रह के प्रभाव वाली दिशा एवं कुबेर का स्थान सर्वाधिक उपयुक्त माना गया है। जैसा कि प्रदर्शित नक्शे में पुस्तकालय उत्तर दिशा में बना है। पुस्तकालय में लाइब्रेरियन की टेबल नैऋत्य में तथा पाठकों व आगंतुकों के लिए स्टडी टेबल उत्तर पूर्व या पश्चिम में जहां सुग्रीव, वरुण व पुष्पदंत के पद होते हैं, उनमें लगाएं। अथवा मध्य भाग में भी लगाई जा सकती है। पुस्तकों की अलमारियां व रैक्स को दक्षिण व पश्चिम में दीवार से 2 फीट की दूरी पर रखना चाहिए।
9.सभागार(Auditorium)-
सभागार अथवा ऑडिटोरियम किसी भी शिक्षा संस्थान में होता ही है क्योंकि किसी भी सामूहिक कार्यक्रम, प्रतियोगिता आदि के लिए यह आवश्यक होता है। इसके लिए उत्तर दिशा में वायव्य की तरफ वाले बड़े भाग पर बनाया जाना शुभ है । यह बुध ग्रह के प्रभाव वाला भाग होता है । तथा कुबेर यहां के देवता होते हैं । इस भूखंड में यह वायव्य और उत्तर के मध्य में है । अतः यह वास्तु सम्मत है।
10. प्रयोगशाला(Laboratory)-
शिक्षा में नए नए शोध और प्रयोग की आवश्यकता होती है, इसके लिए प्रयोगशाला का निर्माण किया जाता है। प्रयोगशाला के लिए नैऋत्य कोण का विशेष महत्व है। यह पृथ्वी तत्व का क्षेत्र में आता है यहां गुरुत्व शक्ति का प्रभाव अन्य भागों की अपेक्षा अधिक देखा जा सकता है। यहां का ग्रह राहु है । प्रदर्शित मानचित्र में प्रयोगशाला का निर्माण राहु के प्रभाव वाले क्षेत्र में किया गया है यहां के देवता निऋति हैं वास्तुशास्त्र में यह क्षेत्र पृथ्वी तत्व के अंतर्गत आता है इसलिए दक्षिण पश्चिम के मध्य में प्रयोगशाला है जो कि उचित है। प्रयोगों और परीक्षणों की सफलता और उनसे सकारात्मक परिणामों के लिए प्रयोगशाला की आंतरिक व्यवस्था भी वास्तु सिद्धांतों के अनुरूप होनी चाहिए।
11. क्रीड़ा स्थल(Play Ground)-
विश्वविद्यालय में क्रीड़ा स्थल अथवा खेल के मैदान, हेल्थ क्लब, जिम आदि के लिए स्थान होता है। परंतु प्रायः विश्वविद्यालय प्रशासन परिषद के जिस भाग में खाली जगह देखते हैं वहीं खेल परिसर विकसित कर देते हैं, जबकि यह उचित नहीं है। अलग-अलग खेलों के लिए परिसर में उत्तर-पूर्व के मध्य क्षेत्र अथवा ईशान में वास्तु शास्त्र के अनुसार मैदानों को विकसित किया जाना चाहिए। इस परिसर में यह स्थान पूर्व-उत्तर के मध्य है, जो कि उचित है।
12.देवालय(Temple)-
विश्वविद्यालय में रहने वाले सभी कर्मचारियों और विशेषकर छात्रों व अध्यापकों में स्वस्थ और पवित्र विचारों का निर्माण हो सके साथ ही एकांत में शांतिपूर्वक प्रार्थना कर सकें। इसके लिए आध्यात्मिक और ध्यान केंद्रों की आवश्यकता होती है। अतः देवालय अथवा आध्यात्मिक केंद्रों का निर्माण वास्तु के अनुसार ईशान कोण में करना का विधान है।[1]
13. चिकित्सा कक्ष(medicale Room/D Dispensary)-
शिक्षण संस्थान के चिकित्सा कक्ष के लिए वायव्य दिशा अनुकूल होती है। चिकित्सा कक्ष भी इस परिसर में वायव्य में बना हुआ है इसलिए यह वास्तु के अनुसार उचित है यहां के देवता वायु देव हैं चंद्रमा यहां के स्वामी हैं। वास्तु विज्ञान के अनुसार इस भाग में वायु स्थिर न रहकर सदा प्रवाह मान रहती है। जिसके फलस्वरूप शुद्ध हवा का संचार मरीज के शरीर से रोगों को अस्थिर कर के प्रवाहित कर लेता है। जिससे रोग और रोगी दोनों ही ज्यादा देर तक के लिए यहां स्थित नहीं हो सकते।
14. घास का मैदान, वाटिका, फुलवारी(Savannah, Garden, Park)-
संस्थान के मध्य भाग में जहां ब्रह्म स्थान पढ़ता हो, वहां किसी प्रकार का निर्माण नहीं किया जाना चाहिए। अतः यहां घास के मैदानों को गार्डन के रूप में अच्छे फूलों, सुंदर वनस्पतियों, झरने आदि से विकसित करना चाहिए। ज्ञान वह मनोरंजन के लिए विषय संबंधी पार्क जैसे- संस्कृत पार्क, विज्ञान पार्क, सौर पार्क, औषधीय पार्क आदि को प्रदर्शनी के रूप में विकसित किया जा सकता है। जिससे विद्यार्थी और शिक्षक अतिरिक्त समय में यहां आराम हेतु टहल और बैठ सकें। इससे ज्ञान भी बढ़ेगा और मन को ऊर्जा भी मिलेगी। अतः इस दृष्टि से प्रस्तुत मानचित्र वास्तुशास्त्र के अनुकूल स्थान निर्धारित किया गया है। जो की शुभ है।
15. पेयजल व्यवस्था (R O, Water Coolar Etc.)
पीने का पानी, स्विमिंग पूल, फब्बारा, नहर, नदी, तालाब, कुआं बोरिंग, हेडपंप इत्यादि जलीय व्यवस्थाओं के लिए भूखंड पर सामान्यतया दो दिशाएं उत्तर-पूर्व अथवा पश्चिम दिशा ही शुभ है। जल व्यवस्था करते समय यह ध्यान रहे कि पानी की निकासी उत्तर पूर्व अथवा ईशान में ही हो। पानी की टंकी अंडरग्राउंड बनानी हो तो पूर्व उत्तर ईशान के अतिरिक्त कहीं और दिशा में नहीं बनानी चाहिए। परंतु यदि जमीन के ऊपर (ओवरहैड)टैंक बनाना हो तो हमेशा पश्चिम, दक्षिण और नैऋत्य भाग में ही बनाना शुभ है। इस नक्शे में जल व्यवस्था भी पूर्व और पश्चिम में वास्तु के अनुरूप है।
16. कुंआ, बोरिंग, तालाब, झरना आदि( Well, Drilling, Pond, Water Fall Etc.)
कुआं, बोरिंग जैसे ट्यूबवेल, परिसर के उत्तर पूर्व में होना चाहिए। प्रस्तुत मानचित्र में यह तदनुकूल बना है, जो कि विश्वविद्यालय की उन्नति वृद्धि और प्रसिद्धि का परिचायक होता है। पीने का पानी के लिए वाटर कूलर या पानी का नल वरुण देव वाले क्षेत्र में, तथा शनि ग्रह के आधिपत्य वाले खंड पर पश्चिम दिशा में किया जाना चाहिए। शिक्षण संस्थान के मानचित्र में यह भी उचित दिशा में बना हुआ है।
17. लेखा विभाग (Accounts Section)-
विश्वविद्यालय परिसर को सुचारू रूप से चलाने के लिए लेखा विभाग की आवश्यकता प्रत्येक विश्वविद्यालय को होती है। इसका कार्य परिसर के निर्माण सम्बन्धी पैसे के खर्च का हिसाब, अध्यापकों कर्मचारियों का वेतन, छात्रों का प्रवेश शुल्क, छात्रवृत्तियां, परिसर का बिजली, पानी,फोन आदि का बिल, अध्ययन, खेल, पुरस्कार, पुस्तकालय, प्रयोगशाला के यंत्र, जैसे तमाम संसाधनों की व्यवस्था हेतु किए जाने वाले खर्च का हिसाब करना होता है। यह कार्य बुध ग्रह के कारकत्व व स्वामित्व वाला है। उत्तरी क्षेत्र बुध ग्रह का क्षेत्र है और यहां के देवता कुबेर हैं इस भाग में वायु तत्व और जल तत्व की उपलब्धि समान भाग में होती है अतः इसके लिए उत्तर दिशा सर्वाधिक शुभ होती है। लेखा विभाग बुध ग्रह और कुबेर की दिशा में सर्वोत्तम होता है। यह सदैव उत्तर में बनाया जाना चाहिए । इससे संस्थान में कभी भी धन, मान और प्रतिष्ठा में हानि नहीं होगी। और संस्थान सुचारू और व्यवस्थित रूप में आगे बढ़ता रहेगा। क्योंकि वास्तु शास्त्र द्रव्य सम्बन्धी कार्य व उसका संचय स्थान उत्तर में बताता है। "उत्तरे द्रव्यसंस्थानमैशान्यं देवतागृहम्।[2]
18. प्रशासनिक कार्यालय(Administrative Block) -
यह प्रशासनिक कार्य शिक्षा से इतर कार्य है। इसका प्रधान अधिकारी कुलसचिव होता है। कुलपति के अतिरिक्त दूसरा बड़ा प्रशासकीय अधिकारी कुलसचिव है। जो विश्वविद्यालय को प्रशासकीय अधिकारियों और कर्मचारियों के द्वारा व्यवस्था को सुचारू रूप से चलता है। इसके लिए प्रशासनिक कार्यालय(Administrative Block) पूर्व दिशा में मुख्य प्रवेश द्वार के बाएं भाग में किया जाना चाहिए। यहां के देवता इंद्र हैं । यह क्षेत्र अग्नि तत्व और जल तत्व प्रधान होने से यहां अग्नि तत्व और जल तत्व की स्थिति बराबर मात्रा में और संतुलित रहती है। इस क्षेत्र के स्वामी भगवान सूर्य हैं। यह दिशा प्रशासनिक कार्यालय के लिए सर्वोत्तम है ।
19. बिजली/विद्युत घर(Power House, Inverter, Generator Etc.)-
परिसर में विद्युत प्रबंधन के लिए बिजली घर की आवश्यकता होती है जिसमें परिसर की बिजली को नियंत्रित करने के लिए मुख्य स्विच बोर्ड लगे होते हैं। इसके अतिरिक्त अन्य बहुत से विद्युतीय यंत्रों और उपकरणों की आवश्यकता होती है जैसे कि इनवर्टर, जनरेटर, ट्रांसफार्मर आदि। अतः विद्युतीय उपकरणों के लिए पूर्व एवं दक्षिण के मध्य आग्नेय कोण सर्वश्रेष्ठ माना गया है। यह भाग अग्नि तत्व प्रधान है। यहां के देवता अग्निदेव हैं । यह शुक्र ग्रह के आधिपत्य वाला क्षेत्र है। प्रस्तुत मानचित्र में यह अग्नि कोण में दीवार से कुछ फीट जगह छोड़कर बनाया गया है। जो कि उत्तम है।
20. कुलपति आवास (V.C. House)
कुलपति किसी भी विश्वविद्यालय का संरक्षक और प्रधान अधिकारी होता है। विश्वविद्यालय के सर्वाधिकार कुलपति के पास होते हैं। अतः इनकी प्रमुख कर्तव्य व दायित्वों के सहित शासक के रूप में कुशल प्रशासन की जिम्मेदारियां होती है। अतः वास्तु शास्त्र इसके लिए नैऋति देवता के प्रभाव वाले भाग पर बनाने को कहता है। यह राहु ग्रह का स्वामित्व वाला भाग है। पृथ्वी तत्व और गुरुत्व शक्ति से युक्त होने के कारण वास्तु के आधार पर दक्षिण-पश्चिम का यह भाग कुलपति आवास के लिए सर्वश्रेष्ठ होता है।
21. मुख्य कर्मचारी आवास (Staff Qwarter)-
अध्यापकों और आचार्यों के लिए परिसर में आवासीय कॉलोनियां बनी होती हैं। यह शैक्षिक भवनों से कुछ दूरी पर होती हैं जिससे आवास और शिक्षा प्रक्रिया एक दूसरे से बाधित न हो पाए। इसके लिए परिसर का नैऋत्य कोण दक्षिण-पश्चिम का मध्य भाग सर्वश्रेष्ठ होता है।
22. चतुर्थ श्रेणी कर्मचारी आवास(Fourth Grade Employee)-
जैसे सुरक्षा कर्मी, मैस के कर्मचारी, माली, ड्राइवर, सफाई कर्मी आदि के परिवारों के रहने के लिए कर्मचारी आवास बने होते हैं। ये आवास परिसर के पश्चिमी भाग में मुख्य कर्मचारी आवास और मैस(भोजनालय) के मध्य में बनाये जा सकते हैं।
23.अतिथिगृह (Guest House)-
विश्वविद्यालय में शोधकार्यो, व्याख्यानों, सेमिनारों, कार्यशालाओं, सम्मेलनों, प्रयोगों, परीक्षाओं, साक्षात्कार, प्रतियोगिता, वार्षिकोत्सव आदि जैसे महत्वपूर्ण शैक्षणिक गतिविधियों के लिए समय समय पर विशिष्ट विद्वानों को बुलाया जाता है अतः इसके लिए अतिथि गृह बने होते हैं। जो कि वास्तु के अनुसार वायव्य दिशा अथवा वायव्य उत्तर के मध्य बनाया जाना चाहिए। प्रस्तुत मानचित्र मे यह वास्तु के अनुरूप है।
24. छात्रावास(Hostel) महिला तथा पुरुष-
किसी भी विश्वविद्यालय अथवा शिक्षण संस्था का छात्रावास एक महत्वपूर्ण और संवेदनशील अंग होता है, क्योंकि छात्र ही विश्वविद्यालय का आधार और देश का भविष्य होता है। छात्रों को सर्वांगीण विकास के साथ-साथ सुरक्षा और समुचित वातावरण मिल सके, इसका विशेष ध्यान दिया जाता है, अतः परिषद के पश्चिमी क्षेत्र में नैऋत्य-पश्चिम के मध्य महिला छात्रावासों तथा पश्चिम- वायव्य के मध्य पुरुषों का छात्रावास बनाया जा सकता है। जैसा कि मानचित्र से स्पष्ट है।
25.भोजनालय(Mess)-
वास्तु शास्त्र में इक्कासी पद वास्तुमंडल के अनुसार विश्वविद्यालय परिसर के पश्चिमी भाग में जहां वरुण देवता अथवा सुग्रीव का पद हो वहां पर बनाया जाना चाहिए। यह महिला छात्रावास तथा पुरुष छात्रावास के मध्य के भाग में पड़ता है अतः पश्चिमी दिशा में ही बनाया गया है। जैसा कि स्पष्टरूप से कहा भी गया है - भोजनं पश्चिमायां च उत्तरे धन संचयम्।[3]
26.परीक्षा विभाग (Examinetion Department)-
परीक्षा प्रक्रिया अधिगम और क्षमताओं के मूल्यांकन का आधार होता है अतः निष्पक्षता और पारदर्शिता परीक्षा विभाग की मुख्य प्राथमिकता होनी चाहिए। इसलिए परिसर के पूर्वी भूखंड में सूर्य और इंद्र के आधिपत्य वाले वाले क्षेत्र पर, प्रशासनिक भवन के निकट बनाया जाना चाहिए। इससे स्वस्थ परीक्षण प्रक्रिया के साथ मूल्यांकन में निष्पक्षता और पारदर्शिता बनी रहेगी।
27.जलपान गृह (Caffe/Teria Canteen)-
परिसर में कैंटीन कैफिटेरिया की आवश्यकता होती है इसके लिए आग्नेया अथवा पश्चिम दिशा शुभ होती है। यहां प्रदर्शित मानचित्र पर अग्नि कोण के समीप में बनाया गया है जो कि उचित है। यहां के स्वामी शुक्र हैं। और देवता अग्नि हैं। अतः परिसर में अग्नि कोण जलपान गृह के लिए सर्वश्रेष्ठ है। जैसा कि बृहद्वास्तुमाला में कहा गया है कि- पूर्वस्यां श्रीगृहं प्रोक्तमाग्नेयं स्यानमहानसम् । [4]
28. शौचालय(Toilet)-
किसी भी शैक्षणिक संस्थान परिसर में शौचालय मुख्य रूप से वास्तु के अनुसार नैऋत्य में करने का विधान है परंतु शौचालय पश्चिम में वायव्य की ओर अथवा पश्चिम में ही नैऋत्य की ओर भी बनाए जा सकते हैं परिसर के सभी भावनों में बनने वाले स्नानघर पूर्व दिशा में बनाये जाने चाहिए जैसा कि- नारदा मुनि का वचन है कि- स्नानागारं दिशिं प्राच्यां आग्नेयं पचनालयम्।[5]
यदि विद्यालय अथवा किसी भी शिक्षण संस्थान की भूमि, वास्तु के सिद्धांतों के अनुसार अपनी गुणवत्ता व दिशाओं के ढलान के अनुरूप है तो इस प्रकार के भूखंड व उसमें निर्मित संस्थान विद्यार्थियों को स्वस्थ व सकारात्मक ऊर्जामय वातावरण प्रदान करते हैं। जो सर्वश्रेष्ठ होते हैं। और यहां प्रदर्शित नक्शे में हर भाग में किए गए निर्माण वास्तु के अनुरूप हैं। इसलिए यह एक वास्तुसम्मत आदर्श शिक्षण केंद्र की कोटि में आता है अनुकूल वातावरण और प्राकृतिक सकारात्मक ऊर्जा के समन्वयन से यह संस्थान ही नहीं अपितु यहां पढ़ने वाले छात्र, अध्यापक और कर्मचारी गण हमेशा प्रसन्नचित्त, उत्साही, स्वस्थ और दत्तचित्त रहकर कार्य करेंगे, व सफल होंगे। साथ ही संस्थान उच्च स्तरीय शिक्षण संस्थान के रूप में जाना जाएगा। ऐसे संस्थानों में पढ़ने वाले छात्र अध्यापक व कर्मचारी गण सफलता के शिखर को प्राप्त करते हुए यश मान-सम्मान और ख्याति को प्राप्त करते हैं।
15. उत्तरे द्रव्य संस्थानमैशान्यां देवतागृहम्।
इन्द्राग्नयोर्मथनं मध्ये यमाग्नयो घृतमन्दिरम्।।
- बृहद्वास्तुमावा श्लोक 151, पृष्ठ सं. 71
16. बृहद्वास्तुमावा श्लोक 151, पृष्ठ सं. 71
17. बृहद्वास्तुमावा श्लोक 150, पृष्ठ सं. 71
18. बृहद्वास्तुमावा श्लोक 149, पृष्ठ सं. 71
19. नारदसंहिता वास्तुलक्षणाध्याय श्लो. 50
वास्तु शास्त्र के महर्षियों के द्वारा शैक्षणिक संस्थाओं का मुख्य प्रवेशद्वार पूर्व में होना उत्तम माना गया है । कक्षाओं के लिए कक्षा कक्ष पश्चिम दिशा में नैऋत्य से वायव्य पर्यन्त बनाने चाहिए अथवा दक्षिण दिशा में आगनेय से नैऋत्य तक बनाए जा सकते हैं। पुस्तकालय भवन उत्तर में, सभागार उत्तर वायव्य की मध्य, प्रशासनिक भवन पूर्व में, क्रीड़ा स्थल ईशान कोण में सर्वश्रेष्ठ माने गए हैं। इस प्रकार उपरोक्त सभी विषयों का विचार वास्तुशास्त्रीय सिद्धान्तों के अनुसार करना चाहिए। प्रस्तुत निबन्ध में वास्तुशास्त्रीय सिद्धान्तो के अनुरूप शैक्षणिक संस्थानों हेतु बनने वाले मानचित्र का दिग्दर्शनमात्र प्रस्तुत किया गया।
अतः इस प्रकार के वास्तु शास्त्र सम्मत शैक्षिक संस्थाओं के होने से न केवल छात्रों का, अपितु अध्यापकों एवं कर्मचारियों का भी शारीरिक और मानसिक विकास होता है। साथ ही उनके उज्जवल भविष्य निर्माण में भी वास्तुशास्त्रोक्त प्राकृतिक ऊर्जाओं का महत् योगदान होता है। अतः परम वैज्ञानिकीय वास्तुसम्मत एक आदर्श शिक्षण संस्थान की परिकल्पना के आधार पर, न केवल अपने भारत देश के अपितु संपूर्ण विश्व के सभी शिक्षण संस्थाओं का निर्माण होना चाहिए, समाज मानवता देश और विश्व उन्नति की दिशा में अग्रसर होता रहेगा।
संदर्भ सूची / References
क्र सं. ग्रंथकर्ता/ संपादक प्रकाशक वर्ष
1. समरांगणसूत्रधार: , भोजदेव चौखंबा संस्कृत संस्थान, वाराणसी, 1998
2. बृहदसंहिता, वराहमिहिराचार्य, रंजनपब्लिकेशन्स, नई दिल्ली, 2010
3.नारदसंहिता, नारदमुनि, चौखम्बा संस्कृत संस्थान, वाराणसी, 1996
4. वशिष्ठसंहिता, ब्रह्मर्षि: वृद्धवसिष्ठ, ज्योतिषकर्मकांड व अध्यात्म शोध संस्थान, प्रयाग, 1993
5. बृहदवास्तुमाला, रामनिहोर द्विवेदी, चौखम्बा सुरभारती प्रकाशन, वाराणसी, 2007
6. वास्तुविमर्श, डॉ. विनोद कुमार शर्मा, हंसा प्रकाशन, जयपुर, 2007
7.अपराजितापृच्छा, श्रीभुवनदेवाचार्य, ओरियंटल इंस्टिट्यूट, बड़ौदा, 1950
8.भारतीय वास्तुशास्त्र, कृष्णदत्त वाजपेयी, उत्तरप्रदेश हिन्दी संस्थान, लखनऊ, 1990
9. भविष्यपुराणम्, श्रीरामशर्मा आचार्य, संस्कृत संस्थान, बरेली, 1970
10. वास्तुरत्नावली, जीवनाथ झा, चौखाम्बा अमर भारती, प्रकाशन, 1998
11. मत्स्यपुराणम्, श्रीकृष्णदासः, नागपब्लिकेशन, 1985
12. वास्तुकल्पलता, डॉ हरिहर त्रिवेदी, चौखंबाकृष्णदास अकादमी, वाराणसी, 1998
13. अग्निपुराणम्, श्रीकृष्णदासः, नाग पब्लिकेशन, 1985
14. भुवनेशकोशविमर्श, प्रो. देवी प्रसाद त्रिपाठी, अमरग्रंथपब्लिकेशंस, दिल्ली, 2004
15. वशिष्ठसंहिता, महर्षि वृद्धवशिष्ठ, ज्योतिषकर्मकांड व अध्यात्म शोध संस्थान, प्रयाग, 1993
Amanda Martines 5 days ago
Exercitation photo booth stumptown tote bag Banksy, elit small batch freegan sed. Craft beer elit seitan exercitation, photo booth et 8-bit kale chips proident chillwave deep v laborum. Aliquip veniam delectus, Marfa eiusmod Pinterest in do umami readymade swag. Selfies iPhone Kickstarter, drinking vinegar jean.
ReplyBaltej Singh 5 days ago
Drinking vinegar stumptown yr pop-up artisan sunt. Deep v cliche lomo biodiesel Neutra selfies. Shorts fixie consequat flexitarian four loko tempor duis single-origin coffee. Banksy, elit small.
ReplyMarie Johnson 5 days ago
Kickstarter seitan retro. Drinking vinegar stumptown yr pop-up artisan sunt. Deep v cliche lomo biodiesel Neutra selfies. Shorts fixie consequat flexitarian four loko tempor duis single-origin coffee. Banksy, elit small.
Reply