प्राचीन व मध्यकाल की शिक्षा पर ज्योतिष का प्रभाव

Author
डॉ.मंजू सिंह
आ. इतिहास, केन्‍द्रीय संस्‍कृत विश्‍वविद्यालय भोपाल परिसर, भोपाल

सभ्यता एवं संस्कृति के सम्यक् प्रसार तथा विकास के लिए एवं वैयक्तिक,सामाजिक और राष्ट्रिय प्रगति के लिए शिक्षा आवश्यक है।मानव जीवन का उच्चतम ध्येय इहलोक की भौतिक उन्नतिपूर्वक सृष्टि और जीवन की गुत्थियों को सुलझाना और ज्ञान का आलोक फैलाना है।पर्ाचीन भारतीय मनीषियों ने यह तथ्य भली-भांती हृदयङ्गम किया था और इसीलिए सुदूर अतीत में भी भारत में शिक्षा की सुन्दर व्यवस्था दृष्टिगोचर होती है।प्रीचीन शिक्षा प्रणाली की उपादेयता के कारण ही भारत का समस्त प्राचीन तथा विशाल वाङ्मय इतना सुरक्षित और समृद्ध बना रह सका तथा भारतीय मानव सुसंस्कृत बन पाया।'शिक्ष्यते , व्युत्पतिलभ्य अर्थ से संसार की किसी भी विद्या का ज्ञान प्राप्त करने का साधन ही शिक्षा है।यह छः वेदाङ्गों में सबसे पहले अपना स्थान रखता है क्योंकि इसी शिक्षा के माध्यम से हम अन्य पाँच वेदाङ्गों को भली-भाँति समझने में सक्षम होते हैं। शिक्षा के साथ ही साथ वेदाङ्ग का जो सबसे महत्वपूर्ण अङ्ग है वह है ज्योतिष।इसे वेदाङ्ग के अङ्गों में नेत्र के नाम से जाना जाता है।क्योंकि नेत्र के द्वारा ही हम सही गलत की पहचान कर सकते हैं।ज्योतिषशास्त्र में तीन स्कन्ध हैं,जैसे वराहमिहिराचार्य ने कहा भी है कि-

 ज्योतिःशास्त्रमनेकभेदविषयं स्कन्धत्रयाधिष्ठितं। तत्कात्स्न्योर्पनयस्य नाम मुनिभिः संकीर्त्यते संहिता।।

स्कन्धेस्मिन् गणितेन या ग्रहगतिस्तन्त्राभिधानस्त्वसौ। होरान्योsङ्गविनिश्चयश्च कथितः स्कन्धस्तृतीयोपरः।।(बृहत्संहिता)

बराहमिहिर ने ज्योतिष के तीन अङ्ग बताएं हैं-1.सिद्धान्त 2.संहिता 3. होरा । तन्त्र वस्तुतः खगोल विद्या के लिए दूसरा नाम है।होरा तथा संहिता फलित ज्योतिष के अन्तर्गत आते हैं।ज्योतिषशास्त्र के तानों स्कन्धों में होरा स्कन्ध लोक(समाज)में अत्यन्त प्रसिद्ध है।इस स्कन्ध के अन्तर्गत मनु्ष्य के सम्पूर्ण विषयकपक्षों पर ज्योतिषशास्त्रीय एवं शिक्षाशास्त्रीय पहलुओं पर प्रकाश डाला है। ज्योतिषशास्त्र के अन्तर्गत काल की महिमा का अत्यन्त महत्तव है और विहित काल पर अत्यधिक भल दिया गया है। जैसा कि आज वर्तमान समय के समाज में कभी-कभी यह सुनने में आता है कि अमुक बच्चे की कुण्डली में विद्या नहीं है परन्तु फिर भी वह अच्छी शिक्षा ग्रहण करके अपने लक्ष्य पर पहुँच जाता है। तो ऐसा कैसे हो जाता है।इसका प्रमुख कारण यह है कि वच्चे का जो विद्यारम्भ विहित काल(उपनयन संस्कार) में किया गया है। तो उसका जो यह दूसरा जन्म हुआ उसमें विद्यायोग बना अर्थात् ' यज्ञोपनयन' होना अर्थात् दूसरा जन्म,इसे द्विज कहते हैं।इस विहितकाल की महीमा वेदाङ्ग ज्योतिष में प्रतिपादित है- वेदा हि यज्ञार्थमभि प्रवृताः कालानुपूर्वा विहिताश्च सर्वाः। तस्मादिदं कालविधान शास्त्रं यो ज्योतिषं वेद स वेद यज्ञान्।।    (वे.ज्यो.श्लो.3 पृ.47)

प्राचीन व मध्यकाल की शिक्षा पर ज्योतिष का प्रभाव-

शिक्षा व ज्योतिष वेदाङ्ग के एक अभिन्न अङ्ग हैं,दोनों ही मनुष्य के जीवन में एक धुरी के रीप में कार्य करते हैं।जिस प्रकार शिक्षा जन्म से लेकर मृत्यु पर्यन्त चलने वाली एक प्रक्रीया है उसी प्रकार ज्योतिष भी गर्भाधारण से लेकर मृत्यु पर्यन्त होने वाले शुभ एवं अशुभ सूचनाओं का ज्ञान कराने वाला महत्वपूर्ण शास्त्र है। झो समस्त मानव जीवन को प्रभावित करता है। शिक्षा द्वारा व्यक्ति का सर्वांगीण विकास होता है जैसे-चरित्र निर्माण,व्यक्तित्व का विकास,कर्तव्यों का ज्ञान तथा अपने साहित्य व संस्कृति का संरक्षण आदि। इसी तरह ज्योतिष द्वारा इन सभी प्रक्रीयाओं को सुचारू रूप से पूर्ण करने का एक महत्तवपूर्ण साधन है क्योंकि कालगमना या काल चक्र को ध्यान में रखकर किया गया कार्य व्यक्ति के मार्ग में पडने वाले समस्त वाधाओं को सन्तुलित या कम करने में सहायक सिद्ध होता है।क्योंकि यह व्यक्ति के जीवन के समस्त पहलुओं पर संस्कारों के द्वारा मनुष्य के व्यक्तित्व को इंगित करता है।भारतीयों ऋषियों ने संस्कारों के द्वारा मनुष्य के व्यकतित्व को परिष्कृत करने और एक विशिष्ट लक्ष्य की ओर प्रेरित करने का प्रयत्न किया है।जिस प्रकार कोई चित्र सुन्दर रंगों के समायोजन से शनैः शनैः अपने सौन्दर्य को उदघाटित करता है उसी प्रकार विधि-विधान पूर्वक किए गए संस्कारों से व्यकति में ब्राह्मण्य प्रतिष्ठित होता है।

उपनयन संस्कार में विहित काल-

 सम्पूर्ण संस्कारों के मध्य उपनयन संस्कार अत्यन्त महत्तवपूर्ण है।इसी संस्कार से व्यक्ति को द्विजत्व प्राप्त होता है।जिस बालक का उपनयन संस्कार नहीं होता था वह वर्ण तथा आश्रम केसमस्त कर्तव्यों से बेदखल माना जाता था।उपनयन संस्कार प्राप्त करके ही व्यक्ति संस्कत के विशाल ज्ञान के भण्डार में प्रवेश करने का अधिकारी होता था।उपनयन संस्कार से ही ब्रह्मचर्य आश्रम प्रारम्भ होता था।ब्रह्मविद्या की शिक्षा के लिए आचार्य के द्वारा विद्यार्थी को स्वीकार किए जाने का संस्कार उपनयन है। यह उपनयन संस्कार भारतीय समाज के तीनों वर्गों के लिए होता था-विप्राणांव्रतबन्धनं निगदितं गर्भाजनेवष्टिमे। वर्षे वाप्पथ पञ्चमे क्षितिभुजां षष्ठे तथैकादशे।। वैश्यानां पुनरष्टमेऽप्यथ पुनः स्थादृद्वादशे वत्सरे। कालेऽपि द्विगुणे गते निगदितं गौणं तदाहुर्बुधाः।।

वर्ण

काम्य

 नित्य

    गौड

1.ब्राह्मण

5 वर्ष

 8  वर्ष

 16 वर्ष

2.क्षत्रिय

6 वर्ष

 11 वर्ष

 22 वर्ष

3.वैश्य

8 वर्ष

 12 वर्ष

 24 वर्ष

सूत्रों एम स्मृतियों में यह संस्कार विशद रूप में वर्णित है। ब्राह्ण,क्षत्रिय,वैश्य इन तीनों वर्णों के लिए इस संस्कार के भिन्न-भिन्न नियम निर्धारित किए गए।

आयु- प्रायः सभी सूत्रों वम समृतियों में ब्राह्मण बालक के जन्म से आठवें वर्ष में,क्षत्रिय बालक के ग्यारहवें वर्ष में तथा वैश्य बालक के बारहवें वर्ष में उपनयन संस्कार करने का विधान है।अधिक ज्ञान प्राप्ति,दीर्घ आधिक बल आदिकी आकांक्षा होने पर उपनयन क्रमशःपांचवें,छठवें तथा आठवें वर्ष में भी किया जा सकता है। उपनयन संस्कार करने की अधिकतम सीमा का निर्धारण भी मिलता है।ब्राह्मण,बालक का सोलह वर्ष,क्षत्रिय बालक का बाइसवें वर्ष तथा वैश्य बालक का चौबीसवें वर्ष मेंउपनयन संस्कार हो ही जाना चाहिए। इस अययु का भी उल्लंघन होने पर तीनों ही वर्ण के बालक शिष्टों के द्वारा निन्दित ‘व्रात्य’ हो जाते हैं। उपनयन संस्कार के लिए निश्चित आयु होना और यह संस्कार न होने पर ‘व्रात्य’ घोषित किया  जाना इसी तथ्य को सूचित करता है कि समाज के सभी  बालक उपयुक्त समय पर उचित शिक्षा प्रारम्भ करें तथा देश का सांस्कृतिक धरोहर को ग्रहण करके उसका संवर्धन एवं पोषण करें।

समय- इस संस्कार को सम्पन्न करने के समय का भी निश्चित निर्धारण किया गया है।सामान्यतः सूर्य की उत्तरायण स्थिति में यह संस्कार किया जाता है। किन्तु वैश्य बालक का उपनयन सूर्य के दक्षिणायन रहते समय भी किया जा सकता है।ब्राह्ण,क्षत्रिय,एवं वैश्य वर्ण के लिए क्रमशः वसन्त,ग्रीष्म एवं शरद् ऋतु में उपनयन करने का विधान कहा गया है। इसके पश्चात यज्ञोपवीत एवं दण्ड भी संस्कार भी इसी के अन्तर्गत होते हैं।

सावित्री उपदेश-सम्पूर्ण उपनयन संस्कारों में यज्ञोपवीत धारण करने के सदृश ही सावित्री उपदेश भी महत्तवपूर्ण है।आचार्य के द्वारा सावित्री मन्त्र दिया जाना ही इस तथ्य का द्योतक है कि गुरु ने शिष्य को विद्याध्ययन के योग्य मान कर उसे स्वीकार कर लिया है।आचार्य बालक की ओर देखते हुए सावित्री मन्त्र का एक पाद सुनाता है,फिर पूरा मन्त्र सुनाता है।सामान्यतः यह उपदेश उपनयन संस्कार के दिन ही होता है।किन्तु इसे क वर्ष,छः मास,चौबीस दिन,बारह दिन या तीन दिन के उपरान्त भी दिया जा सकता है।ब्राह्मण,क्षत्रिय तथा वैश्य वर्ण के लिए सावित्री मन्त्र का उपदेश क्रमशः गायत्री,त्रिष्टुप तथा जगती छन्दों में किया जाता है।इसी मन्त्र का उपदेश होले पर बालक का दूसरा जन्म सिद्ध होता है जिसमें उसकी माता सावित्री तथा पिता आचार्य ही है क्योंकि यह बुद्धि की प्रेरणा का मन्त्र है।

इस प्रकार हम कह सकते हैं कि उपनयन संस्कार के इस समग्र स्वरूप से इसकी महत्ता स्वतः स्पष्ट है कि जीवन में शिक्षा एवं ज्ञान के महत्तव को सूचित करने के लिए उपनयन संस्कार की विविध विधियों का विधान किया गया है और यह सभी ज्योतिषशास्त्र के अन्तर्गत काल गणना के द्वारा प्रयोग किया जाता है।प्राचीन काल से मध्यकाल तक हिन्दू समाज या धर्म में ब्रह्मचारी उपनयन संस्कार से लेकर शिक्षा प्राप्त कर लेने तक गुरू गृह में ही निवास करता था। किन्तु शनैः-शनैः गुरू ग्रहों में निवास समाप्त होता गया और घर पर ही शिक्षा ग्रहण की जाने लगी। इसी कारण इस संस्कार की विविध अनेक विधियां भी व्यर्थ होती गईं।वर्तमान युग ममें उपनयन संस्कार का प्राचीन स्वरूप लगभग समाप्त होता जा रहा है।अब उपनयन का अर्थ केवल जनेऊ धारण करना ही रह गया है।

 

संदर्भ सूची / References

1.मुहुर्तचिन्तामणि-केदारदत्तजोशी

2.भारतीय शिक्षा का इतिहास-सूबेदार सिंह

3.प्राचीन भारतीय शिक्षा और शिक्षाशास्त्री-डा.नत्थूलाल गुप्त

4.बौधायन-धर्मसूत्रम्- डा.नरेन्द्र कुमार

5.शिक्षा के दार्शनिक आधार-डा.गिरीश पचौरी

6.वैदिक शिक्षा पद्धति-डा.भास्कर मिश्र


3 Comments

Amanda Martines 5 days ago

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