जैनदर्शन में गुण एवं पर्याय

Author
डॉ.भूपेन्‍द्र कुमार पाण्‍डेय
आ.ज्‍योतिषविभाग, के.सं.वि.वि.भोपाल परिसर, भोपाल एवं संस्‍थापक ज्‍योतिषविश्‍वकोश

यह लोक छह द्रव्यों एवं पंचास्तिकायों का समूह है। हमारे चारों ओर दृश्यमान जगत् ही लोकहै। जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, काल और आकाश ये तत्त्वार्थ (द्रव्य) कहे गए हैं और ये अनेक गुण और पर्यायों से संयुक्त होते हैं। इसीलिए आचार्य उमास्वामी ने तत्त्वार्थ सूत्र में कहा है कि- गुणपर्ययवद् द्रव्यम्। इसके अन्तर्गत गुण का स्वरूप वर्णित करते हुए कहा है- जो सदैव द्रव्यों के साथ रहें अर्थात् सहभू हों उन्हें गुण कहते हैं। वे गुण दो भेद वाले हैं- सामान्य गुण एवं विशेष गुण। सामान्य गुणों से द्रव्य का अस्तित्व एवं विशेष गुणों से उसका वैशिष्ट्य ज्ञात होता है। जैसे अस्तित्व गुण से द्रव्य और ज्ञान गुण से जीव द्रव्य अभिव्यंजित होता है। स्वजाति की अपेक्षा गुण सामान्य हो जाते हैं और विजातीय की अपेक्षा वही गुण विशेष हो जाते हैं। 10 सामान्य गुणों में से प्रत्येक द्रव्य में आठ-आठ गुण होते हैं और 16 विशेष गुणों में से जीव और पुद्गल द्रव्य में 6-6 विशेष गुण होते हैं और शेष निष्क्रिय धर्म, अधर्म, आकाश और काल इन चार द्रव्यों के तीन-तीन ही विशेष गुण होते हैं। पर्याय का लक्षण है कि वह द्रव्य और गुण दोनों के आश्रित होती है। जिस प्रकार द्रव्य का अन्वयी अंश गुण कहलाता है उसी प्रकार उसका व्यतिरेकी अंश पर्याय कहलाता है। द्रव्य का जगत् सीमित है और पर्याय का जगत् विस्तृत है, विराट् है। पर्याय के मुख्य रूप से दो भेद होते हैं- 1. अर्थ पर्याय 2. व्यंजन पर्याय। जो पर्याय सूक्ष्म है, ज्ञान का विषय है, शब्दों से नहीं कही जा सकती अर्थात् वचन के अगोचर, क्षण-क्षण में नाश होती रहती है वह अर्थपर्याय कहलाती है। जो पर्याय स्थूल है, ज्ञान का विषय है, शब्दगोचर है, चिरस्थायी रहती है वह व्यंजन पर्याय कहलाती है। प्रत्येक द्रव्य में अनन्त व्यंजन पर्याय और अनन्त अर्थ पर्याय होती हैं। अतः एक ही द्रव्य पर्याय की दृष्टि से अनन्त हो जाता है।

 

यह लोक छह द्रव्यों एवं पंचास्तिकायों का समूह है। षड्द्रव्यात्मक लोक की परिकल्पना में चेतन व अचेतन सभी पदार्थों को समाहित किया गया है। षड्जीवनिकायमें प्रतिपादित छः प्रकार के जीवों में आखिर मूल द्रव्य क्या है? ये जीव किस मूल द्रव्य के विविध रूप हैं? लोक में ऐसे स्वतन्त्र मूल द्रव्य कितने हैं? इन सब जिज्ञासाओं का उठना भी स्वाभाविक था। इन जिज्ञासाओं को समाहित करते हुए षड्द्रव्यसिद्धान्तकी प्ररूपणा आगमों में की गई है। इसी लोक के लक्षण को बताते हुए कहा है कि- लोक्यते इति लोकः। अर्थात् जो दिखाई दे वह लोक है। हमारे चारों ओर दृश्यमान जगत् ही लोकहै। इस लोक में क्या-क्या है? इसका समाधान देते हुए उत्तराध्ययन सूत्र में बताया गया है-

धम्मो अहम्मो आगासं, कालो पुग्गल-जन्तवो।

एस लोगोत्ति पन्नत्तो, जिणेहिं वरदंसिहिं।।[1]

            अर्थात् वरदर्शी (सर्वज्ञ) जिनेन्द्रों ने यह निरूपित किया है- (1) धर्म, (2) अधर्म, (3) आकाश, (4) काल, (5) पुद्गल और (6) जन्तु (आत्मा, जीव) - ये छहों का समग्र रूप लोकहै। इसी प्रकार आचार्य कुन्दकुन्द स्वामी भी लोक में स्थित छह द्रव्यों का नामोल्लेख करते हुए कहते हैं कि-

जीवा पोग्गलकाया धम्माधम्मा य काल आयासं।

तच्चत्था इदि भणिदा णाणागुणपज्जएहिं संजुत्ता।।[2]

            अर्थात् जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, काल और आकाश ये तत्त्वार्थ (द्रव्य) कहे गए हैं और ये अनेक गुण और पर्यायों से संयुक्त होते हैं। द्रव्य का लक्षण बताते हुए आचार्य कहते हैं कि- गुणपर्ययवद् द्रव्यम्। जो गुण एवं पर्याय से सहित होता है वह द्रव्य कहलाता है। जो एकमात्र द्रव्य के आश्रित रहते हैं वे गुण हैं।[3] इसी विषय को आचार्य उमास्वामी कहते हैं कि- द्रव्याश्रया निर्गुणाः गुणाः। जो सदैव द्रव्यों के साथ रहें अर्थात् सहभू हों उन्हें गुण कहते हैं। अर्थात् जो द्रव्य के बिना ठहर ही नहीं सकते। द्रव्य के आश्रय से ही सदैव रहते हैं वे गुण कहलाते हैं।[4] वे गुण दो भेद वाले हैं- सामान्य गुण एवं विशेष गुण। उनमें से जो गुण सभी द्रव्यों में समानरूप से पाये जाते हैं वे सामान्य गुण कहलाते हैं। जो एक द्रव्य को दूसरे द्रव्य से पृथक् करते हैं वे विशेष गुण कहलाते हैं। सामान्य गुण दस हैं जो निम्न हैं-

            अस्तित्व, वस्तुत्व, द्रव्यत्व, प्रमेयत्व, अगुरुलघुत्व, प्रदेशत्व, चेतनत्व, अचेतनत्व, मूर्तत्व और अमूर्तत्व।[5]  जैन सिद्धान्त दीपिका में आचार्य महाप्रज्ञ सामान्य गुण 6 ही स्वीकार करते हैं। चेतनत्व, अचेतनत्व, मूर्तत्व और अमूर्तत्व को उन्होंने विशेष गुणों में ही स्वीकार किया है।

            अब सामान्य गुणों का स्वरूप प्रदर्शित करते हुए आचार्य लिखते हैं[6]- जिस द्रव्य को जो स्वभाव प्राप्त है, उस स्वभाव से च्युत न होना अस्तित्व गुण कहलाता है। सामान्य विशेषात्मक वस्तु होती है, उस वस्तु का जो भाव है वह वस्तुत्व गुण कहलाता है।

            जो अपने प्रदेश-समूह के द्वारा अखण्डपने से अपने स्वभाव एवं विभाव पर्यायों को प्राप्त होता है, होवेगा, हो चुका है वह द्रव्य है। उस द्रव्य का जो भाव है वह द्रव्यत्व गुण कहलाता है। अथवा वस्तु के सामान्यपने को द्रव्यत्व गुण कहते हैं।

            जिस शक्ति के निमित्त से द्रव्य किसी भी प्रमाण (ज्ञान) का विषय अवश्य होता है वह प्रमेयत्व गुण कहलाता है। जो सूक्ष्म है, वचन के अगोचर है, प्रतिसमय परिणमनशील है और आगम प्रमाण से जाना जाता है, वह अगुरुलघु गुण कहलाता है। संसार अवस्था में कर्म से पराधीन जीव में स्वाभाविक अगुरुलघु गुण का अभाव पाया जाता है, परन्तु कर्मरहित अवस्था में ही प्राप्त हो सकता है। जिस गुण के निमित्त से द्रव्य क्षेत्रपने को प्राप्त हो वह प्रदेशत्व गुण कहलाता है। अनुभूति का नाम चेतना है, जिस शक्ति के निमित्त से स्व-पर की अनुभूति अर्थात् प्रतिभासकता होती है वह चेतनत्व गुण कहलाता है। जड़पने को अचेतन कहते हैं, अनुभव नहीं होना ही अचेतनत्व है, चेतना का अभाव ही अचेतनत्व गुण कहलाता है।

            रूपादिपने को अर्थात् स्पर्श, रस, गन्ध, वर्णपने को मूर्तत्व गुण कहते हैं। स्पर्श, रस, गन्ध, वर्ण इनसे रहितपना अमूर्तत्व है। यहाँ कोई प्रश्न करता है कि चेतनत्व, अचेतनत्व, मूर्तत्व और अमूर्तत्व ये गुण सामान्य कैसे कहे जा सकते हैं? क्योंकि जिसमें चेतनत्व है उसमें अचेतनत्व नहीं हो सकता और जिसमें मूर्तत्व है तो उसमें अमूर्तत्व गुण कैसे हो सकता?  इसीलिए ये गुण तो विशेष गुण प्रतीत होते हैं।

            इस शंका का समाधन करते हैं कि- जीव और पुद्गल यदि एक-एक होते तो शंका ठीक थी; परन्तु जीव भी अनंत हैं और पुद्गल भी अनन्त हैं। इसीलिए स्वजाति की अपेक्षा चेतनत्व और मूर्तत्व तथा अचेतनत्व एवं अमूर्तत्व सामान्य गुण सिद्ध हो जाते हैं। सामान्य गुणों से द्रव्य का अस्तित्व एवं विशेष गुणों से उसका वैशिष्ट्य ज्ञात होता है। जैसे अस्तित्व गुण से द्रव्य और ज्ञान गुण से जीव द्रव्य अभिव्यंजित होता है।

            इन सामान्य 10 गुणों में से प्रत्येक द्रव्य में आठ-आठ गुण होते हैं और दो-दो गुण नहीं होते हैं। निम्न तालिका के माध्यम से प्रत्येक द्रव्य के सामान्य गुणों को समझते हैं-

क्र.सं.

द्रव्य

                                         सामान्य गुण

1.

जीव

अस्तित्व, वस्तुत्व, द्रव्यत्व, प्रमेयत्व, अगुरुलघुत्व, प्रदेशत्व, चेतनत्व, अमूर्तत्व

2.

पुद्गल

अस्तित्व, वस्तुत्व, द्रव्यत्व, प्रमेयत्व, अगुरुलघुत्व, प्रदेशत्व, अचेतनत्व, मूर्तत्व

3.

धर्म

अस्तित्व, वस्तुत्व, द्रव्यत्व, प्रमेयत्व, अगुरुलघुत्व, प्रदेशत्व, अचेतनत्व, अमूर्तत्व

4.

अधर्म

अस्तित्व, वस्तुत्व, द्रव्यत्व, प्रमेयत्व, अगुरुलघुत्व, प्रदेशत्व, अचेतनत्व, अमूर्तत्व

5.

आकाश

अस्तित्व, वस्तुत्व, द्रव्यत्व, प्रमेयत्व, अगुरुलघुत्व, प्रदेशत्व, अचेतनत्व, अमूर्तत्व

6.

काल

अस्तित्व, वस्तुत्व, द्रव्यत्व, प्रमेयत्व, अगुरुलघुत्व, प्रदेशत्व, अचेतनत्व, अमूर्तत्व

 

अब द्रव्यों के विशेष गुणों के विषय में वर्णन करते हैं। विशेष गुण 16 हैं, जो निम्न प्रकार हैं-

            ज्ञान, दर्शन, सुख, वीर्य, स्पर्श, रस, गन्ध, वर्ण, गतिहेतुत्व, स्थितिहेतुत्व, अवगाहनहेतुत्व, वर्तनाहेतुत्व, चेतनत्व, अचेतनत्व, मूर्तत्व और अमूर्तत्व।[7]

अब विशेष गुणों का सामान्य से स्वरूप वर्णन करते हैं-

            जिस शक्ति के द्वारा आत्मा पदार्थों को आकार सहित जानता है वह ज्ञान कहलाता है। ज्ञान का स्वरूप निरूपित करते हुए आचार्य वीरसेन स्वामी कहते हैं कि- भूतार्थ का प्रकाश करने वाला ज्ञान होता है अथवा सद्भाव के निश्चय करने वाले धर्म को ज्ञान कहते हैं।[8] जो सामान्य विशेषात्मक बाह्य पदार्थों को अलग-अलग भेदरूप से ग्रहण नहीं करके सामान्य अवभासन होता है, उसे दर्शन कहते हैं।[9]

            जो स्वाभाविक भावों के आवरण के विनाश होने से आत्मीक शान्तरस अथवा आनन्द उत्पन्न होता है वह सुख है।[10] वीर्य का अर्थ शक्ति है। जीव की शक्ति को वीर्य कहते हैं।[11] जो स्पर्श किया (हुआ) जाता है वह स्पर्श है।[12] जो चखा जाता है अथवा स्वाद को प्राप्त होता है वह रस है। जो सूंघा जाता है वह गन्ध है। जो देखा जाता है वह वर्ण है। जीव और पुद्गलों को गमन में सहकारी होना गतिहेतुत्व है। जीव और पुद्गलों को ठहरने में सहकारी होना स्थितिहेतुत्व है। समस्त द्रव्यों को अवकाश देना अवगाहनहेतुत्व है। समस्त द्रव्यों के परिवर्तन में सहकारी होना वर्तनाहेतुत्व है। चेतनत्व, अचेतनत्व, मूर्तत्व, अमूर्तत्व का स्वरूप पहले देख चुके हैं।

            यहाँ कोई शंका करता है कि चेतनत्व, अचेतनत्व, मूर्तत्व और अमूर्तत्व ये आपने सामान्य गुण हैं ऐसा सिद्ध किया था; परन्तु आपने विशेष गुणों में ग्रहण किया है यह दोषयुक्त है। आप स्ववचन बाधित हैं? उसका समाधान करते हुए आचार्य कहते हैं कि- चेतनत्व सर्व जीवों में पाया जाता है इस अपेक्षा से सामान्य गुण है और अन्य पुद्गलादि द्रव्यों में नहीं पाया जाता है। अतः उनकी अपेक्षा विशेष गुण है। यहाँ ध्यान देने योग्य तथ्य यह है कि स्वजाति की अपेक्षा गुण सामान्य हो जाते हैं और विजातीय की अपेक्षा वही गुण विशेष हो जाते हैं, क्योंकि जो सामान्य होता है वही विशेष हो जाता है और जो विशेष होता है वही सामान्य हो जाता है। स्वजाति और विजाति की अपेक्षा कथन करने से दोनों में कोई भी दोष प्रकट नहीं हो पाता है। ऐसे ही शेष तीनों गुणों में जान लेना चाहिये।

द्रव्यों में विशेष गुणों को इस तालिका द्वारा समझ सकते हैं-

क्र.सं.

द्रव्य

                                         विशेष गुण

1.

जीव

ज्ञान, दर्शन, वीर्य, सुख, चेतनत्व, अमूर्तत्व

2.

पुद्गल

स्पर्श, रस, गन्ध, वर्ण, अचेतनत्व, मूर्तत्व

3.

धर्म

गतिहेतुत्व, अचेतनत्व, अमूर्तत्व

4.

अधर्म

स्थितिहेतुत्व, अचेतनत्व, अमूर्तत्व

5.

आकाश

अवगाहनहेतुत्व, अचेतनत्व, अमूर्तत्व

6.

काल

वर्तनाहेतुत्व, अचेतनत्व, अमूर्तत्व

    

            इस प्रकार जीव और पुद्गल द्रव्य में 6-6 विशेष गुण होते हैं और शेष निष्क्रिय धर्म, अधर्म, आकाश और काल इन चार द्रव्यों के तीन-तीन ही विशेष गुण होते हैं।

पर्याय का स्वरूप एवं भेद

            द्रव्य गुण और पर्याय वाला होता है तो द्रव्य के गुणों का वर्णन हो चुका है अब पर्याय के स्वरूप को कहते हैं- गुणों के विकार को पर्याय कहते हैं।[13] यहां विकार से तात्पर्य किसी विकृति से नहीं अपितु परिणमन से है। आचार्य उमास्वामी लिखते हैं कि- तद्भावः परिणामः। उसका होना अर्थात् प्रतिसमय बदलते रहना परिणाम है।[14] यहाँ आचार्य यह कहना चाहते हैं कि गुणों के परिणमन को पर्याय कहते हैं। उत्तराध्ययन सूत्र में पर्याय का स्वरूप बताते हुए लिखा गया है- लक्खणं पज्जवाणं तु उभओ अस्सिया भवे। अर्थात् पर्याय का लक्षण है कि वह द्रव्य और गुण दोनों के आश्रित होती है। जिस प्रकार द्रव्य का अन्वयी अंश गुण कहलाता है उसी प्रकार उसका व्यतिरेकी अंश पर्याय कहलाता है। द्रव्य का जगत् सीमित है और पर्याय का जगत् विस्तृत है, विराट् है। हम साधारणतया पर्याय के आधार पर ही द्रव्य का बोध करते हैं। द्रव्य भेद में अभेद का प्रतीक है वहीं पर्याय अभेद में भेद का प्रतीक है। अतः द्रव्य का अनाकार अवबोध-दर्शन हो सकता है, साकार अवबोध में द्रव्य के किसी न किसी विशेष परिणमन का ही ग्रहण होता है। व्यतिरेकी अंश का ग्राहक होने से ही साकार अवबोध में निर्णायकता आती है। आचार्य अकलंक स्वामी लिखते हैं कि- जो सर्व ओर से भेद को प्राप्त करे वह पर्याय है।[15] पर्याय शब्द की व्युत्पत्ति करते हुए धवलाकार वीरसेन स्वामी लिखते हैं कि- परि समन्तात् आयः पर्यायः। अर्थात् जो सब ओर से भेद को प्राप्त करे वह पर्याय कहलाता है। आचार्य पूज्यपाद स्वामी ने पर्याय, विशेष, अपवाद, व्यावृत्ति आदि को एकार्थक माना है। उत्तराध्ययन सूत्र में पर्याय के छह लक्षणों का निरूपण किया गया है, वे इस प्रकार हैं-

एगत्तं च पुहत्तं च संखा संठाणमेव च।

संजोगा य विभागा य पज्जवाणं च लक्खणं।।

            अर्थात् एकत्व, पृथक्त्व, संख्या, संस्थान, संयोग और विभाग ये पर्याय के लक्षण हैं। इसी गाथा को आधर बनाकर आचार्य तुलसी ने भी इसे एक सूत्र में निबद्ध किया है- एकत्व-पृथक्त्व-संख्या-संस्थान-संयोग-विभागास्तल्लक्षणम्। इन छहों लक्षणों का स्वरूप इस प्रकार है-

एकत्व- स्कन्ध के भिन्न-भिन्न परमाणुओं में एकत्व की अनुभूति करवाना। एक घट में अनन्त परमाणुओं की संहति होती है फिरभी हम उसे एक घट के रूप में जानते हैं। यह एकपदार्थता की अनुभूति उस घटपर्याय के ही कारण होती है।

पृथक्त्व- संयुक्त पदार्थों में भेदज्ञान का हेतु बनना भी पर्याय के ही कारण संभव है। जैसे- यह इससे भिन्न है।

संख्या- पर्याय ही दो, तीन, दस, संख्यात, असंख्यात आदि संख्याओं का हेतु है।

संस्थान- द्रव्य का परिणमन ही वृत्त, त्रिकोण, चतुष्कोण आदि व्यवहारों का हेतु बनता है। अतः पर्याय का एक लक्षण है संस्थान-आकृति।

संयोग- दो या दो से अधिक के संयोग की अनुभूति का हेतु मूलभूत द्रव्य का परिणाम संयोग कहलाता है।

विभाग- यह इससे विभक्त है- इस प्रकार की बुद्धि का हेतु भी पर्याय है। अतः विभाग भी पर्याय का एक लक्षण है। यहां ज्ञातव्य है कि- पृथक्त्व दो वस्तुओं की भेदगत प्रतीति पर आधारित है जबकि विभाग संयोग की उत्तरवर्ती अवस्था है। अतः विभाग और पृथक्त्व दो भिन्न लक्षण माने गए हैं।

            आचार्य कुन्दकुन्द स्वामी ने पर्याय के हेतु की दृष्टि से दो प्रकार किए हैं- स्वपरसापेक्ष और निरपेक्ष। जो पर्याय स्व अथवा पर निमित्तों से सापेक्ष होती है उसे स्वपरसापेक्ष, सापेक्ष अथवा विभाव परिणाम कहते हैं। वैभाविक पर्याय मुख्यतः रूपी द्रव्य में होती है। अतः उसका मूल विषय है पुद्गलास्तिकाय। संसारी जीव कर्म युक्त होते हैं, कर्म स्कन्धों के एकीभाव के कारण वे कथंचित् मूर्त होते हैं। अतः उनमें भी वैभाविक पर्याय होती है। जीव का देव, मनुष्य आदि अवस्थाओं में परिणमन तथा घट-पट आदि के रूप में पुद्गल की विभाव पर्याय है। जो पर्याय दूसरे निमित्तों से निरपेक्ष होती है वह निरपेक्ष अथवा स्वभाव पर्याय कहलाती है। धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय आदि चारों द्रव्यों में केवल स्वाभाविक परिणमन ही होता है। जैनदर्शन के अनुसार प्रत्येक द्रव्य में अगुरुलघुत्व नामक गुण होता है। इस गुग के कारण द्रव्य में अनेक परिणमन हो जाने के बावजूद भी वह अपने स्वरूप से अविचलित रहता है। जैन सिद्धान्त दीपिका में आचार्य तुलसी ने अगुरुलघुत्व को परिभाषित करते हुए लिखा है- स्वस्वरूपाविचलनम् अगुरुलघुत्वम्। प्रत्येक द्रव्य में होने वाला वह अगुरुलघुत्व परिणमन स्वभाव पर्याय का श्रेष्ठ उदाहरण है। 

   इसी प्रकार अन्य अनेक आचार्यों ने पर्याय के स्वरूप का वर्णन किया है। उन सबके द्वारा बताये गये स्वरूप में एक सामान्य बात यह है कि परिणमन शब्द का प्रयोग प्रत्येक आचार्य ने किया है। इससे यह प्रतीत होता है कि परिणमन का नाम ही पर्याय है। पंचाध्यायी पूर्वार्द्ध में अंश, पर्याय, भाग, हार, विध, प्रकार, भेद, छेद और भंग इन सबको एक ही अर्थ का वाचक माना है।

            जो स्वभाव और विभाव रूप से सदैव परिणमन करती रहती है वह पर्याय कहलाती है। अथवा जो द्रव्य में क्रम से एक के बाद एक आती जाती है उसे पर्याय कहते हैं। पर्याय के मुख्य रूप से दो भेद होते हैं- 1. अर्थ पर्याय 2. व्यंजन पर्याय।

                                                          

अर्थपर्याय- जो पर्याय सूक्ष्म है, ज्ञान का विषय है, शब्दों से नहीं कही जा सकती अर्थात् वचन के अगोचर, क्षण-क्षण में नाश होती रहती है वह अर्थपर्याय कहलाती है। जैन सिद्धान्त दीपिका में आचार्य तुलसी लिखते हैं- सूक्ष्मो वर्तमानवर्त्यर्थपरिणामः अर्थपर्यायः। अर्थात् द्रव्य में होने वाले सूक्ष्म और वर्तमानकालिक परिणमन को अर्थपर्याय कहते हैं। वह द्रव्य का अन्तर्भूत परिणमन है। उसमें अतीत और अनागत का उल्लेख नहीं हो सकता है। अर्थ पर्याय एक समय वाली तथा संज्ञा असंज्ञी सम्बन्ध से रहित होती है।

            मूर्त हो या अमूर्त, सूक्ष्म हो या स्थूल संसार को कोई भी द्रव्य ऐसा नहीं जिसमें अर्थ पर्याय न हो। यदि द्रव्य में प्रतिक्षण परिवर्तन न हो तो एक लम्बे अन्तराल के बाद भी परिवर्तन संभव नहीं। एक बालक की लम्बाई एक साल पूर्व 4 फुट थी, अब 5 फुट हो गई; परन्तु इसका अभिप्राय यह नहीं कि वह एक वर्ष बाद सीधे एक फुट लम्बा बढ़ गया है। वह प्रतिक्षण, प्रतिसेकेण्ड, प्रतिमिनट, प्रतिघण्टे तथा प्रतिदिन बढ़ रहा है; परन्तु वह परिवर्तन इतना सूक्ष्म होता है कि हम माप नहीं पाते। यही स्थिति अन्य द्रव्यों के विषय में भी ज्ञातव्य है।

व्यंजनपर्याय- जो पर्याय स्थूल है, ज्ञान का विषय है, शब्दगोचर है, चिरस्थायी रहती है वह व्यंजन पर्याय कहलाती है। द्रव्य का वह परिणाम जिसे अभिव्यक्त किया जा सके वह व्यंजन पर्याय कहलाती है। व्यंजन पर्याय की परिभाषा बताते हुए आचार्य तुलसी लिखते हैं कि- स्थूलः कालान्तरस्थायी शब्दानां संकेतविषयो व्यंजन पर्यायः। अर्थात् जो पर्याय स्थूल हो, कालान्तर तक स्थिर रहे, शब्दों के संकेत का विषय बने वह परिणति व्यंजन पर्याय है।

            यह अर्थ पर्याय की अपेक्षा स्थूल और दीर्घकालिक होती है। जैनदर्शन की भाषा में व्यंजन पर्याय का काल  जघन्यतः अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्टतः असंख्यात काल होता है। सुदीर्घ असंख्यात काल की अपेक्षा से उसे शाश्वत और अनाद्यनन्त भी कह दिया जाता है। जैसे- मेरूपर्वत के रूप में परिणत पुद्गल, स्वर्ग, नरक के क्रमशः विमानावास और नरकावास में परिणत पुद्गल।

            व्यंजन पर्याय का क्षेत्र केवल मूर्त अथवा रूपी पदार्थ है। धर्मास्तिकाय आदि चार द्रव्य एकान्ततः अमूर्त हैं। अतः उनके व्यंजन पर्याय नहीं होती। संसारी जीवों तथा पुद्गलों की व्यंजन पर्याय होती है। जैसे- मनुष्य, तिर्यंच, देव आदि अवस्थाएं, मनुष्य की भी बचपन, यौवन आदि और पुद्गल की पुस्तक, घट, पट आदि।

            इन दोनों अर्थपर्याय और व्यंजनपर्याय में से दोनों के स्वभाव और विभाव के भेद से दो-दो भेद हैं। स्वभाव पर्यायें सभी द्रव्यों में पायी जाती हैं; परन्तु विभाव पर्यायें मात्र जीव और पुद्गल द्रव्यों में ही पायी जाती हैं, क्योंकि ये दो द्रव्य ही बन्ध अवस्था को प्राप्त हो जाते हैं। जीव में जीवत्वरूप स्वभाव पर्यायें हैं और कर्मकृत विभाव पर्यायें होती हैं। पुद्गल में विभावपर्यायें कालप्रेरित होती हैं जो स्निग्ध एवं रूक्ष गुण के कारण बन्धरूप होती हैं।

स्वभावपर्याय- जो पर्यायें कर्मोपाधि से रहित हैं वे स्वभाव पर्यायें कहलाती हैं।

            अगुरुलघुगुण का परिणमन स्वभाव अर्थ पर्याय कहलाती है। ये पर्यायें 12 हैं- 6 वृद्धिरूप और 6 हानिरूप।

6 वृद्धिरूप- अनन्तभाग वृद्धि, असंख्यातभाग वृद्धि, संख्यातभाग वृद्धि, संख्यातगुण वृद्धि, असंख्यातगुण वृद्धि और अनन्तगुण वृद्धि।

6 हानिरूप- अनन्तभागहाaनि, असंख्यातभागहानि, संख्यातभागहानि, संख्यातगुणहानि, असंख्यातगुणहानि और अनन्तगुणहानि।

            यह आगमप्रमाण से सिद्ध है कि प्रत्येक द्रव्य में अनन्त अविभाग प्रतिच्छेद वाला अगुरुलघुगुण स्वीकार किया गया है। जिसका 6 वृद्धि और हानि के द्वारा परिवर्तन होता रहता है, अतः इन धर्मादिक द्रव्यों का उत्पाद-व्यय स्वभाव से होता रहता है।

विभावपर्याय- मिथ्यात्व कषाय आदि रूप जीव के परिणामों में कर्मोदय के कारण जो प्रतिसमय हानि या वृद्धि होती रहती है उसे विभाव अर्थ पर्याय कहते हैं।

विभाव अर्थ पर्याय 6 प्रकार की होती है-

            1. मिथ्यात्व 2. कषाय 3. राग 4. द्वेष 5. पुण्य 6. पाप।

            विभाव पर्यायें जीव और पुद्गल मात्र दो पर्यायों में ही होती हैं इसीलिए जीव और पुद्गलों में अलग-अलग विभाव पर्याय को प्रदर्शित करते हैं।

            कषायों की षड्स्थानगत हानि वृद्धि होने से विशुद्ध या संक्लेश रूप शुभ, अशुभ लेश्याओं के स्थानों में जीव की विभाव अर्थ पर्यायें जाननी चाहिये और पुद्गल में द्वि-अणुक आदिक स्कन्धों में वर्णादि से अन्य वर्णादि होने रूप पुद्गल की विभाव अर्थ पर्यायें हैं।

            अब व्यंजन पर्याय के भेदों का कथन करते हैं- अर्थ पर्याय के समान ही इसके भी स्वभाव और विभाव के भेद से दो भेद हैं। स्वभाव व्यंजन पर्याय और विभाव व्यंजन पर्याय मात्र संसारी जीव और पुद्गल में ही पायी जाती है। स्वभाव, विभाव व्यंजन पर्याय के भी दो भेद होते हैं-

            1. विभाव द्रव्य व्यंजन पर्याय 2. विभाव गुण व्यंजन पर्याय। ये दोनों भेद भी संसारी जीव और पुद्गलस्कन्ध में पृथक्-पृथक् होते हैं। सर्वप्रथम यहाँ जीव और पुद्गल की स्वभाव व्यंजन पर्यायों का व्याख्यान करते हैं- अन्तिम शरीर से कुछ कम जो सिद्ध पर्याय है वह जीव की स्वभाव-द्रव्य-व्यंजन पर्याय है। इसी प्रकार अनन्तदर्शन, अनन्तज्ञान, अनन्तसुख और अनन्तवीर्य इन अनन्त चतुष्टयरूप जीव की स्वभाव-गुण-व्यंजनपर्याय है तथा अविभागी पुद्गल परमाणु की स्वभाव-द्रव्य-व्यंजन पर्याय है। पुद्गलपरमाणु में एक वर्ण, एक गन्ध, एक रस और परस्पर अविरुद्ध शीत-स्निग्ध, शीत-रूक्ष, उष्ण-स्निग्ध, उष्ण-रूक्ष, स्पर्श के इन चार युगलों में से कोई एक युगल एक काल में एक परमाणु में रहता है।[16] शीत-उष्ण ये दोनों स्पर्श या स्निग्ध-रुक्ष ये दोनों स्पर्श एक काल में एक परमाणु में नहीं रह सकते, क्योंकि ये परस्पर में विरुद्ध हैं। इन गुणों की जो चिरकाल स्थायी पर्यायें हैं वे स्वभाव-गुण व्यंजन पर्यायें हैं।

अब विभाव पर्यायों का व्याख्यान करते हैं-

            नर, नारक आदि रूप चार प्रकार की अथवा चौरासी लाख योनिरूप जीव की विभाव-द्रव्य-व्यंजन पर्यायें हैं। मतिज्ञानादि और चक्षुदर्शनादि जीव की विभाव-गुण-व्यंजन पर्यायें हैं। द्वि-अणुकादि स्कन्ध और शब्द-बन्ध आदिक पर्यायें पुद्गल की विभाव-द्रव्य-व्यंजन पर्यायें हैं एवं द्वि-अणुकादि स्कन्धों में एक वर्ण से दूसरे वर्णरूप, एक रस से दूसरे रसरूप, एक गन्ध से दूसरे गन्धरूप, एक स्पर्श से दूसरे स्पर्श रूप होने वाला चिरकाल स्थायी परिवर्तन पुद्गल की विभाव-गुण-व्यंजन पर्याय है।

            आचार्य सिद्धसेन दिवाकर ने व्यंजन पर्याय को व्यंजननियत-शब्दसापेक्ष और अर्थ पर्याय को अर्थनियत-शब्दनिरपेक्ष बताते हुए कहा है-

जो उण समासओ च्चिय वंजणनिअओ य अत्थणिअओ य।

अत्थगओ य अभिणो भइयव्वो वंजणवियप्पो।।[17]

            प्रत्येक पदार्थ भेद और अभेद उभयात्मक होता है। उसमें जब अभेद के ऊपर सूक्ष्म विचारणा से काल, देश आदि के कारण भेदों की कल्पना की जाती है तब वे भेद विचार की सूक्ष्मता के कारण उत्तरोत्तर बढते ही जाते हैं। अभिन्न अर्थात् सामान्य स्वरूप के ऊपर कल्पित अनन्त भेदों की इस परम्परा में जितना सदृश परिणाम-प्रवाह किसी भी एक शब्द का वाच्य बनकर व्यवहार का विषय बनता है उतना वह प्रवाह व्यंजन पर्याय कहलाता है और उन उक्त भेदों की परम्परा में जो भेद अनभिलाप्य हो- वाणी या संकेत का विषय न बने वह अर्थ पर्याय है। जैसे चेतन पदार्थ का संसारित्व, मनुष्यत्व, पुरुषत्व, बालत्व आदि परिणमन व्यंजन पर्याय है। उसमें क्षण-क्षण में होने वाला सूक्ष्म परिणमन अर्थ पर्याय है।

            व्यंजन पर्याय यद्यपि सदृश प्रवाह की दृष्टि से अभिन्न-एक है फिरभी उसमें अनेक छोटे-बड़े भेद किए जा सकते हैं। अतः वह भिन्न भी है। जैसे- बाल्य एक व्यंजन पर्याय है, उसके तत्काल जन्म, स्तन्धयत्व आदि अनेक भेद हो सकते हैं। अर्थ पर्याय अभिन्न है, क्योंकि वह भेदों की परम्परा में अन्तिम भेद है, उसमें कोई अन्य भेदक अंश नहीं होता। अतः वह अभिन्न-अभेद्य है। व्यंजन पर्याय को उदाहरण के द्वारा स्पष्ट करते हुए आचार्य सिद्धसेन दिवाकर कहते हैं-

पुरिसम्मि पुरिससद्दो जम्माई मरणकालपज्जन्तो।

तस्स उ बालाईया पज्जवजोया बहुवियप्पा।।[18]

            अर्थात् जन्म से लेकर मरण काल तक पुरुष में पुरुषऐसे शब्द का प्रयोग होता है और बाल आदि अनेक प्रकार के पर्याय उसी के अंश या विकल्प हैं। यदि बचपन, यौवन आदि पर्यायों को एकान्ततः अभिन्न ही माना जाय तो परिणाम यह होगा कि उसका वह बचपन, यौवन आदि पर्याय भी सिद्ध नहीं होगा, क्योंकि बचपन पर्याय का अर्थ ही है कि वह तत्कालजन्म, स्तनन्धयत्व, शैशव आदि अनेक अवान्तर भेदों का समवाय है। एकान्त अभेद मानने से अवान्तर भेदों-अंशों का लोप हो जाएगा और जब अंशों का लोप हो जाएगा जो अंशी कहां बच पाएगा? पुरुषत्व पर्याय के उदाहरण से इसका स्पष्टीकरण करते हुए कहा है-

अत्थित्ति णिव्वियप्पं पुरिसं जो भणइ पुरिसकालम्मि।

सो बालाइवियप्पं न लहइ तुल्लं व पावेज्जा।।

            आचार्य सिद्धसेन दिवाकर के अनुसार एक ही पुरुष व्यक्ति में निर्विकल्प और सविकल्प दोनों प्रकार की बुद्धि होती है। जब पुरुष में इस प्रकार की निर्विकल्प बुद्धि होती है, तब उसका विषय पुरुष पर्याय एक अभिन्न व्यंजन पर्याय है और उसी में जब बाल, युवा आदि अनेक विकल्पों की विवक्षा होती है वे उस पुरुष पर्याय के अर्थ पर्याय हैं अर्थात् एकाकार बुद्धि से गृहीत व्यंजन पर्याय में भासित होने वाले भेद उस व्यंजन पर्याय के अर्थ पर्याय हैं। 

निष्कर्ष

            इस प्रकार प्रत्येक द्रव्य में अनन्त व्यंजन पर्याय और अनन्त अर्थ पर्याय होती हैं। अतः एक ही द्रव्य पर्याय की दृष्टि से अनन्त हो जाता है। पर्याय ही द्रव्य के ज्ञान के हेतु बनते हैं। अतः पर्याय की अनन्तता ही द्रव्य की अनन्तता का हेतु बनता है। गुण और पर्याय द्रव्य के बिना नहीं रह सकते; परन्तु द्रव्य गुण नहीं है और गुण पर्याय नहीं है इस अपेक्षा से इनमें भेद कथंचित् स्वीकार किया गया है। फिरभी तीनों में अभेद है। इतना विशेष है कि इन तीनों में से एक की चर्चा जहां भी होगी वहां तीनों की चर्चा अवश्यमेव होगी। यही तीनों की एकता है। इस कारण से हम समझ सकते हैं कि इन तीनों में कथंचित् भेद भी है और अभेद भी।

संदर्भ सूची / References

1]  उत्तराध्ययन सूत्र, 28/7

[2]  नियमसार, 9

[3]  उत्तराध्ययन सूत्र, 28/6

[4]  न्यायदीपिका, तृतीय प्रकाश 80, त. सू. 5/41, आलापपद्धति 6

[5]  आलापपद्धति

[6] आलापपद्धति

[7]  आलापपद्धति

[8]  भूतार्थप्रकाशकं ज्ञानम्। अथवा सद्भावविनिश्चयोपलम्भकं ज्ञानम्। ध. पु. 1 पृ. 142, 143

[9]  बृ. द्र. सं. गाथा 43, गो. जी. गाथा 482

[10]  पंचास्ति. गा. 163 टीका, प्रवचनसार गा. 59 टीका, पद्म. पंचवि. 8/6, त. वृ. 9/44

[11]  ध. पु. 13 पृ. 390, ध. पु. 6 पृ. 78

[12]  सर्वार्थसिद्धि 2/20

[13]  आलापपद्धति, गुणविकारः पर्यायः

[14]  त. सू. 5/42

[15]  स. सि. 5/38 टीका

[16]  पंचा. गाथा 8

[17]  सन्मतितर्क प्रकरण 1/30

[18]  सन्मतितर्क प्रकरण 1/32


3 Comments

Amanda Martines 5 days ago

Exercitation photo booth stumptown tote bag Banksy, elit small batch freegan sed. Craft beer elit seitan exercitation, photo booth et 8-bit kale chips proident chillwave deep v laborum. Aliquip veniam delectus, Marfa eiusmod Pinterest in do umami readymade swag. Selfies iPhone Kickstarter, drinking vinegar jean.

Reply

Baltej Singh 5 days ago

Drinking vinegar stumptown yr pop-up artisan sunt. Deep v cliche lomo biodiesel Neutra selfies. Shorts fixie consequat flexitarian four loko tempor duis single-origin coffee. Banksy, elit small.

Reply

Marie Johnson 5 days ago

Kickstarter seitan retro. Drinking vinegar stumptown yr pop-up artisan sunt. Deep v cliche lomo biodiesel Neutra selfies. Shorts fixie consequat flexitarian four loko tempor duis single-origin coffee. Banksy, elit small.

Reply

Leave a Reply