रमलविद्या पाठ-1 (परिचयात्‍मक)

Author
डॉ.भूपेन्‍द्र कुमार पाण्‍डेय
आ.ज्‍योतिषविभाग, के.सं.वि.वि.भोपाल परिसर, भोपाल एवं संस्‍थापक ज्‍योतिषविश्‍वकोश

रमलज्‍योतिष मूलत: भारतीय ज्‍योतिष शास्‍त्र की विधाओं की विशिष्‍टशाखाओं में एक है। विदेशी आक्रमणकारियों ने भारत की संस्‍कृति और विद्या को नष्‍ट करने के दुराग्रह से अनेक प्रहार किये। हमारे वेदों, पुराणों, वेदांगों को नष्‍ट करने का एक भी प्रयास नहीं छोडा। यहाँ के अमूल्‍य ग्रंथों को उठा ले गये, कुछ को जला दिया और  चुरा ले गये ग्रंथों का अनुवाद करवा कर अपनी विद्या बताने का प्रयास किया।

यह कथन अपने आप में स्‍पष्‍ट है कि उनके विचारों व कथनों का संपूर्ण आधार हमारा भारतीय वाङ्मय है। उनके पास इसके पूर्व का और इसके पश्‍चात् का कोई चिन्‍तन आज भी उपलब्‍ध नहीं है। यही दुष्‍प्रभाव ज्‍योतिष शास्‍त्र के साथ भी हुआ। इस शास्‍त्र की अनेक विधाओं का स्‍वयं का चिन्‍तन व स्‍वयं की खोज बताने का दुराग्रह किया गया। यही स्‍थिति रमलविद्या के साथ भी हुई। इस विद्या के प्रभाव को देखकर कुछ विद्वानों ने इस पर सौहार्द पूर्ण और भारतीय ज्‍योतिष की चिंतन शैली से विचार करके कार्य करना प्रारंभ किया जिसको रमलविद्या के नाम से प्रचारित किया।

1- रमलविद्या का परिचय

2-रमलविद्या की विधियाँ

3- रमलज्‍योतिषी कैसा हो

4- प्रश्‍नकर्ता किस प्रकार प्रश्‍न करे

5- सामान्‍य परिचय

रमल विद्या एक परिचय- हमारे वैदिक ज्‍योतिष में प्रश्‍न के द्वारा उत्‍तर देने की अनेक विधायें हैं उनमें अनन्‍यतम रमल विद्या है। यह अपने आप में अनूठा व अद्भुत विज्ञान प्रत्‍येक प्रश्‍न का उत्‍तर देने में सक्षम है। इस विद्या को पुन: भारत में स्‍थापित करने का प्रथम श्रेय आचार्य सुर्खाव को जाता है। वे संस्‍कृत भाषा के बहुत अच्‍छे जानकार नहीं थे अतएव वे इसको भारतीय शैली में पूरी तरह से स्‍थापित करने में सफल नहीं हो पाये। प्रारंभिक दौर में इसकी शब्‍दावली और चालन विधि को देखकर लोगों ने इसे विदेशी विद्या कहकर इसको दूर करते रहे। कहा जाता है रमण का अपभ्रंश रूप ही रमल है। इसकी शैली पूरी तरह से भारतीय ज्‍योतिष से मिलती-जुलती है। भावों के विचारणीय विषय, भावों की संज्ञायें, शिव-पार्वती संवाद आदि विषय इसके प्रत्‍यक्ष प्रमाण हैं। 

✓हमारे यहाँ रमल शास्‍त्र में तीन विधियों से फलादेश करने का प्रचलन पाया जाता है।

✓प्रचलित विधियाँ- भारत में रमलविद्या  के द्वारा फल कथन की तीन प्रमुख विधियाँ प्रचलन में हैं। जिनका क्रमश: उपस्‍थापन करने का प्रयास किया जा रहा है।

(i)वैदिकपद्धति के अनुसार फल कथन- कुण्‍डली के पहले घर को लग्‍न मानकर शेष 12 घर तक प्रश्‍नभाव मानकर विचार करना। हम यहाँ भावों में बनने वाली विभिन्‍न आकृतियों [Shapes] के शुभ-अशुभ, आगम-निर्गम आदि स्‍वभाव के अनुसार प्रश्‍नकर्ता के फल का निर्णय करते हैं।

(ii) दूसरी विधि ‘’बिन्‍दु गति प्रणाली’’ के नाम से जानी जाती है। इस विधि में कुण्‍डली के 15 वें घर की आकृति/शकल के ऊपर से नीचे क्रम के बिन्‍दु को (जो वायु-जल-पृथ्‍वी तत्‍त्‍व का सूचक है) ऊर्ध्‍व क्रम में अर्थात् 15 वें घर से ऊपर पहले से लेकर आठवें क्रम तक के घर में, उसी तत्‍त्व वाली बिन्‍दु की अंतिम आकृति खोजकर लग्‍न निश्‍चित करना। इसके बाद सोपान पंक्‍ति में उपर्युक्‍त प्रकार से प्राप्‍त लग्‍न की आकृति को सोपान पंक्‍ति के उसी तत्‍त्व में आकृति को देखना कि वह किस क्रम में है। फल कहने के लिये इसी आकृति[Shape] को लग्‍न मानेगें। फिर भाव फल का क्रम जानने के घर का क्रम जानने के लिये उपर्युक्‍त लग्‍न भाव को  प्रथम भाव मानकर आगे गणना करते हैं। फिर सोपान कुण्‍डली में प्रश्‍नभाव की गणनानुसार जो आकृति प्राप्‍त होती है उसे कुण्‍डली में देखकर तदनुसार फल कहते हैं।

(iii) तीसरी पद्धति प्रश्‍नावली [रामशलाका के अनुसार] है। इस विधि में एक क्रम में कुछ अंक/अक्षर लिखे जाते हैं।  प्रश्‍नकर्ता अंगुली रखकर या अन्‍य किसी संकेत के द्वारा किसी अक्षर का अथवा अंक का निर्णय करता है। उस संकेतिक अक्षर का फल पहले से ही आचार्यों द्वारा लिखा गया है, ज्‍योतिषी उसी को अपने शब्‍दों में कहने का प्रयास करता है।

✓रमल ज्‍योतिषी कैसा हो-

हमारे शास्‍त्रों में उस शास्‍त्र का ज्ञानी/ अधिकारी कौन है  उसके क्‍या लक्षण हैं यह निश्‍चित किया गया है उसके अनुसार ही रमल को जानने वाला कैसा हो, उसका आचरण कैसा हो यह क्रमश: बताया जा रहा है।

(i) इसको सीखने वाला/जानने वाला सत्‍यवादी, जितेन्‍द्रिय और इष्‍ट साधना में निरत होना चाहिये।

(ii) ज्‍योतिषी कभी भी दूसरे के अन्‍न, धन की लालसा न रखे।

(iii) हास-परिहास दूसरे को परेशान करने के उद्देश्‍य से इस विद्या का प्रयोग न करे।

(iv) हमेशा पवित्र विचार, नि:स्वार्थ होकर, पृच्‍छक के हित को ध्‍यान में रखते हुये फल कथन करे।

(v)ज्‍योतिषी भी ग्रह, भाग्‍य व कर्मचक्र के बंधन से ग्रस्‍त रहता है अत: स्‍वयं को सर्वश्रेष्‍ठ मानकर अपनी बात को मनवाने के लिये घोषणा करना उचित नहीं है।    

✓प्रश्‍नकर्ता के कर्तव्‍य-

(i)प्रात: स्‍नानादि व इष्‍ट का ध्‍यान करके प्रश्‍न करे।

(ii) ज्‍योतिषी की परीक्षा लेने के उद्देश्‍य से प्रश्‍न न करे।

(iii) काम,क्रोध, अहंकार आदि से वशीभूत होकर प्रश्‍न नहीं करना चाहिये।

(iv) पूर्ण श्रद्धा व भाव के साथ अपने हाथ में कुछ रखकर प्रश्‍न करे।

✓सामान्‍य परिचय- (i)इस विद्या में पांसों के आधार पर बहुश: फल निर्णय करना होता है। पांसो के द्वारा बनने वाली आकृति के आधार पर कुण्‍डली, वर्षकुण्‍डली व प्रश्‍नकुण्‍डली का निर्माण किया जाता है।(ii) इसके साथ ही कुछ प्रश्‍नों के कथन के लिये अक्षर आदि स्‍पर्श करने की विधा भी प्रचलन में है। जिनका क्रमश: वर्णन आगे किया जायेगा। (iii) कुण्‍डली विधा में 12 भाव हैं इसमें 16 भावों का प्रयोग किया जाता है। 12 भावों से सम्‍बन्‍धित विषय परंपरा गत हैं। उसमें माता का विचार चतुर्थ से होता है रमल विद्या में दशम भाव से होता है। इसी प्रकार दशम भाव से माता का विचार किया जाता है।


3 Comments

Amanda Martines 5 days ago

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